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गुरुदेव कहते हैं...
हृदय तो हमारा ही है ना ? उसमें कैसी संवेदनाएँ पैदा करनी अथवा कैसी नहीं करनी, यह जब हम पर ही निर्भर है तो क्यों न शुभ संवेदनाओं को पैदा करें और अशुभ संवेदनाओं को दबाते रहें?
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स्थल था खंभात ओसवाल जैन उपाश्रय । वहाँ अंजनशलाका महोत्सव चल रहा था। आज प्रभु के जन्मकल्याणक के निमित्त ५६ दिक्कुमारियों का मंचीय कार्यक्रम था और गुरुदेव, प्रातः काल में वन्दन हेतु एकत्रित साधुओं के समक्ष आपने जो उद्बोधन दिया था वह आज भी मुझे अच्छी तरह याद है।
"देखो, आज मंच पर ५६ दिक्कुमारियों का कार्यक्रम होने वाला है। वे दिक्कुमारियाँ १० वर्ष से अधिक उम्र की नहीं होनी चाहिए इस संबंध में मैंने आयोजकों को स्पष्ट हिदायत पहले ही दे दी है, फिर भी मेरी स्पष्ट इच्छा है कि तुम सब यहीं उपाश्रय में रहकर स्वाध्यायादि करो। मैं दो-चार वृद्ध साधुओं के साथ कार्यक्रम में जाकर लौट आऊँगा ।
दिक्कुमारिकाएँ भले ही छोटी उम्र की होंगी, फिर भी उनका स्त्रीशरीर
है । हम संयमी उनके दर्शन से बचते रहें इसी में हमारा आत्महित सुरक्षित है। यह प्रभुभक्ति का प्रसंग है इसलिए मैं तुम्हें न आने की आज्ञा तो नहीं देता, पर मेरी यह जो इच्छा थी वह तुम सबको बताना चाहता था।"
गुरुदेव !
हम सब की पवित्रता की चिन्ता करने वाले आपने अपने हृदय को किस हद तक पवित्र बनाये रखा होगा इसकी कल्पना करते करते आज भी आँखों में आँसू छलक आते हैं। आपके जैसे शिरछत्र को पाकर हम सभी धन्य हो गये हैं।
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