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________________ will गुरुदेव कहते हैं... हृदय के भावों को निर्मल करने के तीन लाभ१. अशुभ कर्मबंधन में रुकावट । २. शुभ कर्मों का उपार्जन । ३. पूर्व बंधित पापकमों का क्षय । समस्त संघ में आज आनंद ही आनंद था। उसमें भी विशेष आनंद तो हम साधुओं को था । केवल पाँच-सात दिन बाद आपका वर्धमान तप की १०८ वीं ओली का पारना था। कितना प्रबल सत्व प्रकट करने के बाद आप इस मंज़िल के निकट पहुँच पाये थे। जीवन के लगभग ६००० दिन आपने इस तप में बिताये थे। इस अवधि में कभी आपको बुखार भी आया तो कभी पिलिया भी हो गया, कभी तो आपको यह तप बीच में ही छोड़ देना पड़ा था तो कभी आपको इस तप की पूर्णाहुति खींचकर भी करनी पड़ी थी। परन्तु, वास्तविकता यह थी कि सभी संघर्षों से पार उतरकर आप मंजिल के बिल्कुल निकट आ पहुँचे थे। परन्तु, न जाने क्यों आपके चेहरे पर इन दिनों आनंद नहीं, बल्कि व्यथा थी ? एक रात सहज ही मैंने आपसे इसका कारण पूछा। आपका जवाब था 'रत्नसुंदर, विगई में जाने का आनंद कैसा ? अनंत अनंत काल से जिन विगइयों के सेवन ने आत्मा को विकृतियों का शिकार बनाकर दुर्गतियों में ढकेलने का ही काम किया है वह विगईसेवन निकट आ रहा है, उसमें खुशी ? कदापि नहीं।' गुरुदेव ! महाविदेह में जाने की बजाय क्या आप हम जैसों के लिए उदाहरणरूप बनने के लिए ही भरतक्षेत्र में अवतरित हो गये थे ? ५९
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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