________________
गुरुदेव कहते हैं... छोटे-बड़े पापों को लेकर अंतर में भारी पछतावापीड़ा-व्याकुलता प्रकट होनी चाहिए। वह भी ऐसी कि वह जरा भी चैन न पड़ने दे, नजरों के सामने उन पापों के कडु विपाकरुप दुर्गति के दुःखभरे जन्म दिखाई देने लगे और • परिणामस्वरूप उन पापों का प्रतिपल भय लगा रहे तथा उन पापों के प्रति पापकारी स्वयं की आत्मा के प्रति घृणातिरस्कार बना रहे।
"रत्नसुंदर ! प्रवचन तो तुम करते ही हो, अब थोड़ा लिखना भी शुरु कर दो।" पालनपुर - खोड़ा लीमड़ा के उपाश्रय का वह स्थान था । समय था लगभग दोपहर के २:३० बजे का।
"गुरुदेव ! बोलना अलग बात है और लिखना अलग। बोलने में विषयांतर चल सकता है, पर लिखने में विषयांतर कैसे चल सकता है ? और दूसरी बात, आप तो जानते ही हैं कि आज भी मैं किसी को एक पत्र भी व्यवस्थित रूप से नहीं लिख पाता। ऐसी स्थिति में मैं कुछ लिखना शुरू करूँ यह मेरी क्षमता के बाहर है।"
मेरे इस नादान जवाब को सुनकर गुरुदेव, आप तुरंत बोले"रत्नसुंदर, तुम्हें मेरे वचन पर विश्वास नहीं है ?"
और एक पल का भी विलम्ब किये बिना मैंने आपकी गोद में अपना
सर रख दिया था। आपने सूरिमंत्र के जाप का वासक्षेप मेरे मस्तक पर • डालते समय जो हाथ फेरा था उस स्पर्श में वात्सल्य का कैसा महासागर उमड़ पड़ा था वह मेरे स्मृतिपथ में आज भी स्थिर है । बस, उसी क्षण से प्रारंभ हुई थी मेरी लेखनयात्रा, जो आज तक अखण्डित रूप से जारी है।
गुरुदेव !
हृदय में यह श्रद्धा नितांत स्थिर हो गई है कि गुरु शिष्य को केवल आज्ञा ही नहीं देते, आज्ञा के साथ आज्ञापालन का बल भी देते हैं। इसके बगैर मेरे जीवन में इस चमत्कार का सर्जन होता ही कैसे ?
५७