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गुरुदेव कहते हैं... जीवन में प्रवृत्ति कोई भी जारी हो, पर मन को कदापि दुषित नहीं करना चाहिए। काया पाप में रत हो तो भी मन को भीतर से धर्म और वैराग्य की भावनाओं में मग्न रखना चाहिए, क्योकि मन की कलुषितता से जो क्षति होती है उसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकती।
पता नहीं क्यों, पर गुरुदेव आज आपके चेहरे पर कुछ उदासी झलक रही थी।आपने सुबह की गोचरी ग्रहण की तो सही, पर आप भीतर से व्यथित हैं ऐसा आपके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। आप प्रवचन में जाने के लिए तैयार हो रहे थे और तब मैंने हिम्मत करके आपसे पूछ ही लिया
"गुरुदेव, स्वास्थ्य मैं कुछ गड़बड़?"
"नहीं।" "आपका चेहरा यह बता रहा है कि आप अभी कुछ व्यथा का अनुभव कर रहे हैं।"
"तुम्हारा अनुमान सही है।" "क्या मैं कारण जान सकता हूँ?" "जानते हो तुम आज क्या तिथि है ?"
"पूनम।" "पूरी रात चन्द्रमा आकाश में रहा । उसका प्रकाश उपाश्रय में सतत् आता रहा। मैंने सोचा था कि मैं एकाध घण्टे में उठ जाऊँगा। लेकिन पता ही नहीं चला ऐसी गहरी नींद आज मुझे कैसे आ गई ? उजाले की पूरी रात व्यर्थ गई। कुछ भी लिखना नहीं हुआ।तुम ही बताओ, प्रसन्नता कैसे टिकेगी?"
गुरुदेव! आप यह मानते रहे कि "नींद आ गई तो रात बिगड़ी।", जबकि "नींद न आये तो रात बिगड़ी", यह हमारी मान्यता है। ऐसे में क्या आपको लगता है कि हमारा उद्धार हो पाएगा भला?