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गुरुदेव कहते हैं... बात-बात में जिसे 'पुरा' लग जाता हो और बात-बात में जिसे 'द:ख' लग जाता हो उसके साथ मित्रता करने से अपने आपको सदा दूर ही रखो, क्योंकि उसे खुश रखने के प्रयास में आपकी जिन्दगी ही पूरी हो जाएगी।
याद रखना, यह जिन्दगी तो प्रभु को खुश करने के लिए और उसके द्वारा आत्मा को सुखी बनाने के लिए मिली है। इस जिन्दगी में इसके अलावा और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।
स्थान था अहमदाबाद । चातुर्मास हमारा था दशापोरवाड़ सोसायटी में।पर्युषण पर्व की आराधना करवाने मुनि भगवंत अलग अलग स्थानों पर गये थे और इसीलिए गुरुदेव के साथ हम दो ही साधु थे।
मुझे संवत्सरी का उपवास तो था ही, पर उपवास बहुत कठिन हुआ था। रात को किसी भी तरह नींद नहीं आ रही थी। संथारे में पड़ा पड़ा करवटे बदल रहा था और अचानक मुझे उल्टी हो गई।
उल्टी की आवाज़ सुनकर गुरुदेव आपजाग गये।तुरन्त मेरे संथारे के पास आये। नीचे जमीन पर पड़ी उल्टी को आपने अपने हाथों से उठाकर कटोरे में भरा।जमीन साफ की।नीचे जाकर उल्टी को परठने की विधि की, और ऊपर आकर मेरी कमर भी दबा दी।
गुरुदेव, सुबह आपने मुझे प्रतिक्रमण करवाया। अपने वस्त्रों का पडिलेहण तो किया ही, परन्तु मेरे सभी वस्त्रों का पडिलेहण भी आपने ही किया।मुझे पुन: सुलाकर मेरे अत्यन्त पीडित शरीर को आपने दबा दिया। कुछ स्वस्थता आने के पश्चात् आप स्वयं मेरा हाथ पकड़कर मुझे मंदिर दर्शन करने ले गये।
गुरुदेव! आज भी यह प्रसंग स्मृतिपथ पर आ रहा है और मुझे यह भी समझ में आ रहा है कि संयमजीवन में मुझे कभी 'खालीपन' का अनुभव क्यों नहीं हुआ?