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________________ गुरुदेव कहते हैं... सर्व पापों के त्याग के लिए अशक्ति दर्शाने वाला मन, यदि संभव पापों के त्याग के लिए भी सत्व प्रकट करने हेतु तैयार नहीं है तो निश्चित् समझो कि "पाप भयंकर है", मन की यह श्रद्धा केवल स्वयं के साथ ठगी करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। मुंबई से विहार के बाद हम जा रहे थे अहमदाबाद की ओर। बीच में आया वापी। वहाँ पाच दिनों के लिए स्थिरता थी। एक दिन संध्यासमय। प्रतिक्रमण करने के बाद बहुत नींद आ रही थी। गुरुदेव, मैं आपकी अनुमति लेने आया और आश्चर्य, आपने मुझे सो जाने की अनुमति दे दी! संथारा बिछाते बिछाते मैं सोच रहा था, "ऐसी उदारता (?) गुरुदेव, यह तो पहली बार दर्शायी आपने। थोड़े समय में में सो तो गया, परन्तु गहरी नींद में मुझे लगा, कोई मुझे उठा रहा है । आँखें खोलीं- देखागुरुदेव आप ही थे। "उठो।" अचानक मेरी निगाह दीवार पर लगी घड़ी पर गई।दो बजे थे।मैं आगे कुछ विचार करूँ इसके पहले आप ही बोल उठे, "रात को तुम आठ बजे सो गये थे ना? अभी दो बजे हैं। छ: घण्टे की नींद पूरी हो गई। अब बैठ जाओ स्वाध्याय करने के लिए। रात लम्बी है। आसमान में चन्द्र खिला है, स्वाध्याय में आनन्द आयेगा। देखो में भी अभी चन्द्र के प्रकाश में लिखने ही बैठ रहा हूँ।" गुरुदेव! रात में जल्दी सो जाने की आपने जब मुझे अनुमति दी तव मुझे पता नहीं था कि उसमें आपकी उदारता नहीं, वणिकवद्धि थी। "आचार्यों जिनधरमना वक्षव्यापारी शूरा", यह आपकी ही। रचना है ना?
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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