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यह सब सुनते ही अकम्पितजी का संशय भी मिट गया. अपने तीन सौ । छात्रों के समुदायके साथ उन्होंने भी प्रभु के चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया. प्रभुने सबको दीक्षित करने के बाद अकम्पितजी को त्रिपदी का ज्ञान दिया. उस ज्ञानके आधार पर उन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने उन्हें आठवें गणधरके रूप में सर्वत्र प्रतिष्ठित किया. अकम्पितजी का जीवन धन्य हो गया. उन्हें हमारा कोटिशः वन्दन.
तारक भी मारक भी सत्ता, शक्ति और संपत्ति - तारक भी है और मारक भी । जैसे दियासलाई से अग्नि प्रज्वलित कर खाना भी पकाया जा सकता है और आग लगाकर विनाश भी किया जा सकता है, वैसे ही सत्ता, शक्ति एवं संपत्ति का सदुपयोग कर समाज एवं देश गौरव भी बढ़ाया जा सकता है तथा उनका दुरुपयोग कर प्रतिष्ठा पर पानी भी फिराया जा सकता है.
शंका का अन्त शान्तिका प्रारंभ है सन्तुष्ट मनवाले के लिए सदा सभी दिशाएं सुखमयी है जैसे जूता पहनने वाले के लिए कंकड़ और काँटे आदि से दुःख नहीं होता.
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वातावरण
यदि तुम धूप में बैठे हो तो उसकी उष्णता से कैसे बच सकोगे ? यदि तुम अग्नि के समक्ष बैठे हो तो उसके ताप से कैसे बच सकोगे ? इसी प्रकार यदि क्रोध और वैमनस्य के वातावरण में जी रहे हो, तो उसके उत्ताप और बैचैनी से कैसे बच सकोगे ? पानी के किनारे पर एवं वृक्ष की छाया में बैढनेवाला जैसे शीतलता एवं शांति अनुभव करता है, वैसे ही क्षमा एवं विरक्ति के वातावरण में पलपनेवाला सदा शांति एवं प्रसन्नता अनुभव करता है । हमें केवल शारीरिक शक्ति ही अर्जित नहीं करनी हैं, शक्ति के साथ यह ज्ञान भी चाहिए कि शक्ति वही अच्छी है जो सद्गुण, शक्ति, पवित्रता सब पर उपकार करनेकी प्रेरणा तथा प्राणी मात्र के प्रति प्रेम से युक्त हो ।
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