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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२. अथ पुण्ये सन्दिग्धम्, द्विजमचल भ्रातरं विबुधमुख्यम् । ऊ विभुर्यथार्थम् वेदार्थं किं न भावयसि ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (अचलभ्राता नामक ब्राह्मण महापण्डितसे, जिसे पुण्य के विषयमें सन्दह था, प्रभु महावीर ने कहा- "तुम वेदवाक्य का ठीक अर्थ (वास्तवविक आशय) क्यों नहीं समझते ? " ) नौवें महापण्डित 'अचलभ्रता' भी अपने तीन सौ छात्रों के समुदायको साथ लेकर अपना संशय मिटाने के लिए प्रभु महावीर स्वामी के समवसरण में पहुँचे. केवल ज्ञान से वे सबके मनकी शंका आधार सहित जान लेते थे. अचलभ्राता के मनकी शंका जानकर वे बोले:- है सौम्य । वेदोंमें एक जगह लिखा है - पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ॥ (जो कुछ हो चुका है और जो कुछ होने वाला है, वह सब पुरुष ही है ) इससे मालूम होता है कि पुण्य नामक कोई तत्त्व नहीं है, किन्तु दूसरी जगह वेदमें लिखा है - पुण्यं पुण्येन कर्मणा || ( पवित्र कार्य से पुण्य होता है) इसमें पुण्य की बात कही गई है, इसलिए तुम्हारे मनमें यह शंका है कि "पुण्य' तत्त्व वास्तवमें है भी या नहीं ठीक है न ? अचलभ्राता:- हे प्रभो । आप तो अन्तर्यामी है वर्षों से अन्तस्तल में छिपी हुई मेरी शंका को आपने ठीक-ठीक जान लिया है, मैं सोचता हूँ कि व्यक्ति ज्यों-ज्यों पाप से मुक्त होता जाता है, त्यों-त्यों सुख पाता जाता है, इसलिए जब समस्त पापों से वह मुक्त हो जाता है, तब अनन्त सुख या मोक्ष सुख पा जाता है. इस प्रकार केवल पाप तत्त्व मानने से ही जब अपना काम चल जाता है, तब व्यर्थ 'पुण्य' नामक एक और नये तत्त्व को स्वीकार करने से क्या लाभ ? प्रभु ने कहा:- हे वत्स । उस वेद वाक्य में पुरुष (आत्मा) की प्रशंसा की गई है. उसे त्रैकालिक नित्य अमर माना गया है, परन्तु निषेध किसीका नहीं किया गया है. यदि उसमें पुण्य तत्त्वका उल्लेख नहीं है तो निषेध भी नहीं है. उसमें ऐसा कहाँ लिखा है कि पुण्यतत्त्व नहीं होता ? यदि ७२ For Private And Personal Use Only
SR No.008738
Book TitleSanshay Sab Door Bhaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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