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ऐसे तो बहुत से प्रसंग हैं कितना क्या क्या सुनाऊँ ? यदि कोई वैसा परिचित व्यक्ति मिलने आ गया तो आपको प्रेक्टिकल करके हि बतलाऊँगा. अपनी आँखोंसे चमत्कार देखने के बाद आपको भी देवों के अस्तित्व पर विश्वास हो जायगा.
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देवों के अस्तित्व के विषय में संशय मिटते ही श्री मौर्यपुत्रजीने भी अपने साढ़े तीन सौ छात्रोंके साथ आत्मसमर्पण कर दिया. प्रभुके द्वार दिये गये त्रिपदी के बोध से उन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की. प्रभु ने सातवें गणधरके रूपमें उन्हें प्रतिष्ठित किया.
आठवें 'अकम्पित' जी भी समवसरण में पहुँचे. प्रभुने उनसे कहा :- हे अकम्पित । "न ह वै प्रेत्य नरके नारकास्सन्ति ॥" ( मरने के बाद नरकमें नारक नहीं हैं) तथा "नारको वै एष जायते यः शूदान्नमश्नाति ||" (जो शूद्र का अन्न खाता है, वह नारक बनता है) इन परस्पर विरूद्ध वेदवाक्यों से तुम्हारे मनमें यह संशय उत्पन्न हो गया है कि वास्तवमें नारक (नरक निवासी जीव) होते भी हैं या नहीं ? ढीक है न ?
अकम्पितजी: हाँ, प्रभो। आप तो मेरे हृदय में छिपी शंका ही नहीं, उसका कारण भी जानते हैं. आप सचमुच सर्वज्ञ है. मेरी शंका निराकरण कर मुझे अनुगृहीत करें.
प्रभु :- "हे अकम्पित । उस वेदवाक्य का आशय यह है कि नरक में नारकों का जीवन भी शाश्वत नहीं है, कर्मफल भोग चुकने पर उन्हें नरक छोडना पडता है. उसका आशय यह भी है कि नारक प्रेत्य (मरकर) नारक नहीं बनते. जैसे अत्यन्त पुण्य कर फल भोगने के लिए (स्थान) देवलोक है, वैसे ही अत्यन्त पापों का फल भोगने के लिए नरक है. फिर इन्द्रिय प्रत्यक्ष की अपेक्षा अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अधिक प्रामाणिक होता है. मकान का झरोखा कुछ नहीं देखता मकानका मालिक ही देखता है. जिन्हें अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष हुआ है, नरक का वर्णन करते है. दूसरी बात यह है कि हंस, सिंह आदिका प्रत्यक्ष सबको आसानी से नहीं होता, फिर भी उन्हें कोई अप्रत्यक्ष नहीं मानता, क्योंकि कोई उनका प्रत्यक्ष कर चुका है. तुमने भी समस्त देश, समुद्र नगर, ग्राम आदि नहीं देखे हैं, फिर भी दूसरों के प्रत्यक्ष होने के कारण तुम उन्हें प्रत्यक्ष मानते हो, यही बात नारकों के विषय में समझो वे मुझे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं".
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