________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
स
से विश्वव्यापक है कर्म रहित होने से वे संसार में न बँधते हैं, न जन्म-मारण के चक्कर में पड़ते हैं. वे मुक्त भी नहीं होते (क्यों कि जो बद्ध होता है, वही मुक्त होता है. वे तो पहले ही मुक्त हो चुके है. मुक्त को मुक्त होने की क्या जरूरत?) और वे किसी को मुक्त भी नहीं करते (वे अरिहन्त अवस्थामें भी केवल मुक्तिका मार्ग बताते हैं. उस मार्गपर चलकर जीव स्वयं ही मुक्त होता है). जहाँ तक संसारी देहधारी जीवोंका सवाल है, वे तो शुभाशुभ कर्म के अनुसार संसार में जन्म-मरण पाते है - बँधते हैं और मुक्त भी अन्तमें होते हैं : इसलिए कर्मबन्ध और मोक्ष-दोनों का अस्तित्व है ही. यदि ये दोनों न हों तो मुक्ति प्ररूपक समस्त धर्मशास्त्र, समस्त धर्मोपदेश और समस्त धार्मिक कार्य व्यर्थ हो जायें. पुण्य-पाप के फलस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवमें आने वाले सुख-दुःख भी असत्य हो जायँ, बीज और अंकुर की तरह जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादिकालीन है. जीव कर्म से शरीर को और शरीर से कर्म को उत्पन्न करता है और मकड़ी की तरह अपने लिए जाला बुनकर स्वयं ही उसमें फँसता है-बँधता है तथा सुदेव-सुगुरू-सुधर्म की भक्ति द्वारा आत्म शुद्वि करके स्वयं ही मुक्त भी हो जाता है." संशय मिटते ही महापण्डित मण्डितजी ने भी अपने छात्र समुदाय सहित प्रभुके चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया दीक्षित होकर द्वादशांगी की रचना प्रभुप्रदत्त "त्रिपदी" के आधार पर की.
६४
For Private And Personal Use Only