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गुणों से युक्त हो कर मनुष्य बनता है और पशु भी यदि प्रमाद क्रूरता आदि गुणों से ऊपर न उठ पाये तो मरकर पशु बनता है. इसका आय ऐसा नहीं है कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही बनता है और पशु मरकर पशु ही बनता है, अन्यथा "मनुष्य मरकर सियार बनेगा" ऐसा नहीं लिखा
जाता.
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दूसरी बात यह है कि आम बोनेसे आमका पेड़ लगेगा और नींबू से नींबूका. ऐसी जो युक्ति तुम्हारे मस्तिष्क में छाई हुई है, वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि मनुष्य की विष्ठा में कीड़े ( जन्तु) पैदा होते हैं और गोबर
बिच्छू । इसलिए यही मानना चाहिये कि जो जैसा व्यवहार करेगा, उसीके अनुसार अगले जन्ममें वह मनुष्य या पशु बनेगा. जो मनुष्य बनना चहता हो, उसे मनुष्योचित गुणों को अपनाना चाहिये, अन्य था मर कर उसे पशु बनना पड़ेगा यही प्रेरणा उस ऋचासे दी गई है.
यह सुनकर शंका का समाधान हो जाने के कारण सुधर्माजीने भी आत्म-समर्पण कर दिया. उनके पाँच सौ छात्रोंने भी उनके साथ दीक्षा ग्रहण की. प्रभुके द्वारा प्रदत्त "त्रिपदी" के आधार पर उन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने उन्हें पंचम गणधर के रूप में प्रतिष्ठित किया.
छठवें महापण्डित मण्डित जी भी अपने साढ़े तीन सौ छात्रों के समुदायके साथ समवसरण में पहुँचे. प्रभुने उनसे कहा :- "हे मण्डित । जिस वेदवाक्यके आधार पर बन्ध मोक्षके विषय में तुम्हें शंका उत्पन्न हुई
थी, वह इस प्रकार है । स एष विगुणो विभुर्न बध्यते, संसरति, मुच्यते, मोचयति वा ॥ (वह यह विगुण विभु न बँधता है, न संसार में जन्म-मरण पाता है, न मुक्त होता है और न मुक्त करता है) इससे तुम समझने लगे कि बन्ध - मोक्ष का अस्तित्व शायद नहीं है. ढीक है न ?"
मण्डित :- "जी हाँ । यही है मेरी शंका. कृपया मेरा समाधान कर अनुगृहीत करें".
प्रभु :- "इस वेदवाक्यमें 'विगण' और 'विभु' शब्दों के अर्थ पर तुम्हारा ध्यान नहीं गया. विगुणका अर्थ है - त्रिगुणातीत अथवा विशिष्ट गुणसम्पन्न अथवा विगत (नष्ट) हो गये हैं छाद्मस्थिक गुण जिन के-ऐसे सिद्धदेव के विषयमें यहाँ कहा गया है: क्यों कि वे ही विभु केवल ज्ञान
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