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इसलिए वह वेदवाक्य अभाव बोधक नहीं, अनित्यता बोधक है. जो पृथ्वी आदि पंच महाभूत सबको प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उन्हें स्वप्नवत् असत् (अभावरूप) मानना केवल भोलापन है". यह सुनकर महापण्डित व्यक्तजी ने भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ आत्मासमर्पण कर दिया. प्रभुने सबको प्रव्रज्या दे दी. व्यक्तजी को "त्रिपदी" का ज्ञान देकर चतुर्थ गणधर के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया. व्यक्तजी ने भी प्रथम तीन गणधरोंके सामान द्वादशांगी की रचना की धन्य हो गया उनका जीवन. पाँचवें महापण्डित 'सुधर्मा जी भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ अपनी शंका का समाधान पाने के लिए सहर्ष समवसरण में जा पहुँचे. प्रभुने उन्हें देखते ही कहा :- "हे सुधर्मा । जिस वेदवाक्य के आधार पर तुम्हें शंका हुई, वह इस प्रकार है :- "पुरुषो वै पुरूषत्व - मश्नुते पशु : पशत्वम" इस वाक्य से तुम यह समझते हो कि परूष मरने पर परूष ही अगले जन्ममें बनता है और पशु मरकर पशु ही बनता है. जैसे गेहुँ बोने से गेहूँ पैदा होता है और चना बोनेसे चना - आम से आम पैदा होता है
और नींबू से नींबू. परन्तु वेद में अन्यत्र कहा गया है :- "शृगालो वै जायते यः स पुरूषो दस्यते ॥" (जो पुरूष जलाया जा रहा है, वह सियार बनेगा) इससे मालूम होता है कि पुरूष पशु भी बनता है.. ऐसी दशामें वास्तविकता क्या है ? दोनों बातें परस्पर विरूद्ध है इसलिए दोनों सच्ची नहीं हो सकती. किस ऋचा को झूठी मानें और किसको सच्ची ? यही है न तुम्हारी शंका ?" सुधर्माजी ने कहा :- ‘हाँ प्रभो । आप ठीक फरमाते हैं. मेरे हृदयमें यही शंका है. मुझे समझमें नहीं आ रहा है कि जब पुरुष मरकर सियार बन सकता है तो ऐसा क्यों कहा गया है कि पुरूष मरकर पुरूष ही होता है और पशु मरकर पशु ही होता है ? दोनों वाक्योंमें संगति क्या है ? यदि पहली ऋचाका अर्थ समझने में मुझे भ्रम हुआ हो तो आप वास्तविक अर्थ समझाकर मेरा संशय मिटाने की कृपा करें." महावीर स्वामी :- हे सुधर्मा । "पुरूषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशु : पशुत्वम् ।" इस वेदवाक्य का आशय यह है कि मनुष्य भी यदि आर्जवमार्द वादि
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