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ॐ
प्रभु महावीर की शिष्यता स्वीकार कर ली है. ऐसा चौथे व्यक्त नामक महापण्डित ने जब सुना तो प्रसन्नतापूर्वक अपने पाँच सौ छात्रों के साथ वह भी समवसरण की ओर चल दिया. प्रभुने कहा : हे व्यक्त । जिस वेद वाक्यके आधार पर पंच महाभूत के अस्तित्व के विषय में तुम्हें सन्देह हुआ है, वह इस प्रकार है स्वप्नोपमं वै सकलं इत्येष ब्रम्हाविधिरंजसा विज्ञेय : ॥ (निश्चितरूप से यह सब सपने समान है यह ब्रम्ह (परमात्मा) को प्राप्त करने की विधि शीध्र जानने योग्य है) इससे तुम समझते हो कि पृथ्वी आदि पाँचों महाभूत स्वप्नके समान असत् है अविद्यमान है, क्यों कि सपना भी दिखता है, पर होता नहीं, उसी प्रकार पंच महाभूत भी दिखते भले ही हों पर उनका अस्तित्व नहीं
साथ ही वेदमें अन्यत्र "पृथ्वी देवता आपो देवता" (पृथ्वी देवता है-जल देवता है) आदि के द्वारा पृथ्वी आदि पंच महाभूतों की सत्ता (अस्तित्व) का भी प्रमाण मिलता है. ऐसी अवस्थामें यथार्थ क्या है ? पंच महाभूतों का अस्तित्व है या नहीं ? यह शंका तुम्हारे हृदय में वर्षों से छिपी हुई है. हे न ?" व्यक्त :- "हाँ-हाँ, प्रभो । यही शंका सचमुच मेरे मनमें बैठी मुझे परेशान करती रहती है कृपया इसका निराकरण कर मुझे अनुगृहीत करें". प्रभु :- हे व्यक्त । स्वप्नोपमं वै सकलम.... आदि जो वेदवाक्य है, उसमें जगत के कनक, कामिनी, शरीर आदि की अनित्यताका ही संकेत किया गया है, पदार्थों के अभावका नहीं. जगत् के सारे सम्बन्ध क्षणिक है. संसार के समस्त सुख नश्वर है अस्थायी हैं यह जानकारी वैराग्यको पुष्ट करती है और इसी लिए उसे ब्रम्हविधि परमात्मा को प्राप्त करने को अथवा स्वंय परमात्मा बनने का साधन कहा गया है. फिर स्वप्न स्वयं सत् (भावरूप) है, इसलिए सकलम् असत् (सब कुछ अभाव) नहीं हो सकता. यदि सकलको असत (अभाव) माना जाय तो फिर चारों वेदोंको भी अस्त मानना पड़ेगा और जिस वेदवाक्य के आधार पर तुम्हें शंका हुई है, वह भी असत् हो जायगा और उस दशामें तुम्हारी शंका भी अपने आप निरस्त हो जायगी - व्यर्थ हो जायगी.
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