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महावीर स्वामी :- "हे वायुभूति । वेदकी उस ऋचामें जीव या शरीर के विलीन होने की नहीं, किन्तु आत्माकी पर्याय के रूप में जो वस्तु सापेक्ष ज्ञान होता है, उसी के उत्पत्ति - विनाश की बात कही गई है. जो वस्तु सामने आती है, उसका हमें ज्ञान होता है. फिर दूसरी वस्तु सामने आने पर दूसरी वस्तु का ज्ञान होता है और पहली वस्तुका ज्ञान उसी वस्तु के साथ विलीन हो जाता है. आत्मा कभी विलीन नहीं होती क्योंकि दूसरी वस्तुका ज्ञान हमें उसीसे होता है. मरने पर शरीर पाँच भूतों में विलीन हो जाता है, जीव नहीं. वह इस भावमें किये गये शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए नया शरीर धारण कर लेता है. इसलिए "अन्नो जीवो अन्नं सरीरम् ॥" जीव अन्य है और शरीर अन्य है. दोनों का पृथक् अस्तित्व है. शरीर रूपी महल में जीव निवास करता है, जैसे महल में रहने वाला राजा स्वयं महल नहीं है, महल से पृथक् है उसी प्रकार शरीर में रहने वाला जीव भी स्वयं शरीर नहीं है, शरीर से पृथक् है. मुर्दे में (शव में या लाशमें) शरीर तो ज्यों का त्यों मौजूद है, परन्तु जीव नहीं है, इससे भी दोनों का पार्थक्य प्रमाणित होता है.
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शुद्ध (असंयुक्त) नाम वाली वस्तु भी अवश्य होती है. जीव और शरीर ये. दोनों अलग-अलग नाम है. इसलिए इन शब्दोंके वाच्यार्थ (जीव और शरीर) का भी अलग-अलग अस्तित्व अवश्य है.
जीवित अवस्थामें जो शरीर सचेष्ट रहता है और सड़ता नहीं, वही मुर्दा होने पर निश्चेष्ट होकर सड़ने लगता है. शरीर को सचेष्ट रखने वाला उसे सड़ने से बचाने वाला जीव है.
दूधमें घी की तरह शरीर में जीव है. जैसे दूधमें घी अनुमान से समझ लिया जाता है, वैसे ही सचेष्ट शरीर में जीव अनुमान से समझ लेना चाहिये".
शंकाका समाधान होते ही वायुभूतिने भी पाँच सौ छात्रों के साथ आत्म समर्पण कर दिया दीक्षा लेली. प्रभुने "त्रिपटी" का ज्ञान देकर इन्हें अपने तीसरे गणधर के रूप में प्रतिष्ठित किया, त्रिपदी के आधार पर इन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की.
इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीनों सहोदर भ्रता थे. दिग्गज पंडित होते हुए भी अपनी-अपनी शंकाओंका समाधान हो जाने से इन्होंने
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