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१०.
शिष्यों सहित इन्द्रभूति और अग्निभूति नामक अपने दोनों बड़े भाइयों के दीक्षित हो जाने के समाचार सुनकर 'वायुभूति' भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ समवसरण की ओर चल पडे :: परन्तु इन्द्रभूति और अग्निभूति के भीतर जो क्षोभ था, वह इनके भीतर नहीं था. इतना ही नहीं : बल्कि इन्हें तो मन ही मन प्रसन्नताका अनुभव यह सोच कर हो रहा था कि सर्वज्ञ प्रभुके दर्शन और सान्निध्य का जो यह सुन्दर अवसर सामने आया है, उससे मेरे हृदयमें वर्षोंसे छिपी हुई शंकाका भी अवश्य समाधान हो जायगा और मैं भी अपने ज्येष्ठ बन्धु युगल की तरह महावीर प्रभुका शिष्य बनकर अपना जीवन धन्य बना सकूँगा. प्रभुने निकट आये हुए वायुभूति से कहा :- "हे वायुभूति गौतम । वेद की जिस ऋचा का वास्तविक अर्थ न समझ सकने के कारण तुम्हारे हृदय में शंका उत्पन्न हो गई थी, वह इस प्रकार है.
विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य : संमुत्थाय ।
तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ॥ तुम इस वाक्यसे समझते हो कि पंच महाभूतोंसे उत्पन्न होकर जीव उन्हीं में लीन हो जाता है शरीर भी ऐसा ही है इसलिए जो शरीर है, वही जीव है और जो जीव है, वही शरीर है जीव और शरीर में कोई अन्तर नहीं है दोनों अभिन्न हैं. न प्रेत्य संज्ञारित अर्थात् मरने के बाद जीव या शरीर का कोई अस्तित्व नहीं रहता. दूसरी ओर वेदमें यह वाक्य भी। आता है सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा : संयमात्मान :।। अर्थात् धीरज वाले संयमी लोग इस आत्मा को, जो नित्य प्रकाशमय और शुद्ध है सत्य, तपस्या और ब्रह्मचर्य से प्राप्त करते हैं और देखते हैं इस ऋचासे स्पष्ट मालूम होता है कि आत्माका शरीर से पृथक अस्तित्व है. ऐसी अवस्थामें वास्तविकता क्या है ? शरीर से जीव को भिन्न माना जाय या अभिन्न ? ऐसा सन्देह तुम्हारे मनमें छिपा है. ठीक है न ?" वायुभूति :- "धन्य हैं प्रभो । आप, जिन्होंने बिना कहे, मेरे हृदय में छिपे सन्देह को जान लिया. इस सन्देह को मिटाने की कृपा कीजिये मैं आपकी शरण में आया हूँ पूरा विश्वास है कि आप मुझे निराश नहीं
करेंगे."
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