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Achal
८.
सोऽ प्येवमागत : शीघम्
प्रभुणा भाषितस्त था । सन्देहं तस्य चित्तस्थम्
व्यक्ती कृत्यावदद्विभु : ॥ वह (अग्निभूति) भी इस प्रकार (इन्द्रभूति के समान) वहाँ (समवसरण में) शीध्र (चलकर) आया. प्रभु (महावीर) ने उसी प्रकार (जिस प्रकार श्री इन्द्रभूति को सम्बोधित किया था) उसे पुकारा और उसके चित्तमें रहे हुए सन्देह (कर्म है या नहीं ?) को प्रकट करके कहा :
हे गौतमाग्निभूते। क:
सन्देहस्तव कर्मणः ? कथं वा वेदतत्त्वार्थी
न विभावयसि स्फुटम? हे अग्निभूति गौतम । कर्म के विषय में तुम्हें कैसा सन्देह है ? वेदके तत्त्वको तुम स्पष्ट क्यों नही समझ पा रहे हो ? वेदके जिस वाक्य को आधार बनाकर तुम्हारी शंकाने जन्म लिया है, वह इस प्रकार है "पुरूष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्य भाव्यम्" जो कुछ हुआ है और जो कुछ होने वाला है, वह सब पुरूष (आत्मा) ही है. इस वेदवाक्य में "एव" (ही) इस अव्यय पदसे तुम समझते हो कि पशु, पक्षी, मनुष्य, पर्वत आदि जो भी वस्तुएँ दिखाई देती है, वे सब "आत्मा" ही है. कर्म, ईश्वर आदि का भी इस वाक्य में कोई उल्लेख नहीं हुआ है, अतः “एव" पदसे उनका भी निषेध हो जाता है, किन्तु वेद की अन्य ऋचाओं (पुण्य : पुण्येन भवति । पाप : पापेन भवति ।) के भीतर कर्म (पुण्य-पाप) का विधान भी पाया जाता है। ऐसी हालत में वास्तविकता क्या है दूसरी बात यह भी तुम्हें विचारणीय लगती है कि आकाश को जैसे तलवार से काटा नहीं जा सकता और न उसपर चन्दन का लेप ही किया जा सकता है, क्योंकि आकाश अमूर्त है तलवार और चन्दन मूर्त है मूर्त का अमूर्त से संयोग नहीं हो सकता उसी प्रकार अमूर्त से संयोग नहीं हो सकता उसी प्रकार अमूर्त आत्मासे मूर्त कर्मका संयोग भी नहीं हो सकता इसलिए तुम मानते हो कि कर्मका शायद अस्तित्व ही नहीं है क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ?"
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