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कर्म के विषय में इतना विस्तार से इसलिए कहा गया है कि श्री इन्द्रभूतिके अनुज अग्निभूति के मनमें कर्म के अस्तित्व को लेकर एक शंका थी श्री इन्द्रभूति की शंकाका जिस प्रकार प्रभुने निवारण किया था, उसी प्रकार अग्निभूति की शंकाका भी उन्होंने निवारण कर दिया. प्रभुके समवसरण में पहुँचते ही अग्निभूति का मन तो शान्त निरहंकार निर्वैर निर्विकार हो ही गया, परन्तु शंका का समाधान हो जाने पर किस प्रकार निःशंक भी हो गया था ? सो कल देखा जायगा. आज इतना ही पर्याप्त है.
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समझौता
हार जीत मनुष्य के अहंकार का प्रतीक है, किन्तु समझौता और सन्धि यह उसकी बुद्धिमानी का चिन्ह है.
हार-जीत का प्रश्न पशुओंमें भी खड़ा हो जाता है, किन्तु वहाँ समझौता जैसी कोई कल्पना नहीं हो सकती. दो बैल, भैसे, मैढे या कुत्ते परस्पर लड़ते-झगड़ते लहु-लुहान हो जाते हैं, दमतौड़ देते हैं, या मैदान छोड़कर भाग जाते हैं, किन्तु समझौता करके शान्ति से निबटने की बात उनके दिमाग में नहीं आती.
समझौता मनुष्य को बुद्धि की उपज है जो मनुष्य युद्धर्मे, झगडे में समझौता की भाषा नहीं जानता उस मानव में और पशु में क्या अन्तर हैं... ?
नेतृत्व के दो गुण
एक इंजन जैसे पचासों डिब्बों को लेकर चल सकता है, वैसे ही एक दृढसंकल्पी व्यक्ति हजारों मनुष्यों को अपने पीछे लेकर आगे बढ़ सकता है.
समाज का नेता, इंजन की तरह होता है, जो अपनी शक्ति पर भरोसा रखता है, किन्तु ध्यान सब का रखता है. कहीं भा गडबड़ हुई तो वह उसे सुधारे बिना आगे नहीं चलता.
इंजन की भांति नेतृत्व में अपना साहस और अनुगामियों के प्रति वात्सल्य दोनों गुण अनिवार्य है.
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