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यद्यपि शब्दोंके माध्यमसे आत्मा का परिचय नहीं मिल सकता : फिर भी जहाँ शब्दों के कारण संशय उत्पन्न हुआ हो, वहाँ शब्दों के माध्यमसे संशयको मिटाया जा सकता है प्रभु महावीर ने यही किया. श्री इन्द्रभूति को वेद के पदोंके कारण आत्मा के विषय में संशय हुआ था. प्रभुने वेद का तिरस्कार नहीं किया. यदि हमारी दृष्टि सम्यक् पर हो तो किसी धर्मशास्त्रका अनादर करने की जरूरत नहीं पड़ती अनेकान्त सिद्धान्त से परस्पर विरूद्ध बातों का भी समन्वय हो जाता है. सर्वज्ञ होते हुए भी प्रभुने ऐसा नहीं कहा कि मैं सर्वज्ञ हूँ इसलिए मेरी बात मान लो. सर्वज्ञत्व का कोई अभिमान उनमें नहीं था. वेदको उन्होंने असत्य नहीं बताया. वेदके पदों का वास्तविक अर्थ समझया. बोले :- हे गौतम । जैसे साधारण मनुष्य परमाणुको नहीं जानता परन्तु ज्ञानी जानता है, वैसे ही आत्मा को भी वह जानता है. दूसरों को समझाने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग करता है. "अस्त्यात्मा शुद्ध पदवाच्यत्वाद् घटवत् ॥” (शुद्ध (असंयुक्त) पद "घट" है तो घटपदवाच्य "घट" अर्थ (वस्तु) भी है. उसी प्रकार शुद्ध (असंयुक्त) पद "आत्मा" है तो आत्मपदवाच्य अर्थ (आत्मतत्त्व) भी है ही. "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्य : समुत्थाय तान्येवा नुविनश्यति....." इस वेदवाक्य का आशय यह है कि जीवको घटपटादि वस्तुएँ देखने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह ज्ञान घटपटादि वस्तुओंके हट जाने पर उनके साथ ही चला जाता है "न प्रेव्य संज्ञास्ति" जो पहले की ज्ञान संज्ञा थी, वह बाद में नहीं रहती. घटका ज्ञान घट में ही रह जाता है. पटमें घटके ज्ञानका उपयोग नहीं रह जाता घटको देखने के बाद वह (वस्त्र) सामने आया तो घट का ज्ञान विलीन हो गया. पटके ज्ञानने उसका स्थान ले लिया. इसी प्रकार पटके बाद मुकुट सामने आ जाय तो पटका ज्ञान विलीन हो जायगा और उसके स्थान पर मुकुट का ज्ञान प्रकट होगा. आत्मा स्थिर है परन्तु वस्तु सापेक्ष ज्ञान अस्थिर है - परिवर्तन शील है. ज्ञान आत्माकी पर्याय है, जो परिवर्तित होती रहती है. यदि "विज्ञानघन...... "उस ऋचा का अर्थ ऐसा मान लिया जाय कि मरने के बाद आत्मा पंचमहाभूतों में विलीन हो जाती है तो “साधुकारी साधुर्भवति ॥" (अच्छे कार्य करने वाला परलोक में साधु (सज्जन) बनता है) और "पापकारी पापी भवति" (पाप (बुरे कार्य) करने वाला परलोकमें
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