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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पापी (दुष्ट) बनता है) इन वैदिक ऋचाओं की संगति कैसे बैढेगी. यदि । मरने पर शरीर के साथ ही आत्मा विलीन हो जाती है ऐसा मान लिया जाय तो परलोक में "साधु" या "पापी" के रूप में जन्म कौन लेगा ? इसी प्रकार यजुर्वेदकी एक ऋचा है "दकारत्रयं यो वेत्तिस जीव : ॥" (दमन, दया और दान - इन तीन दकारों को जानने वाला जीव है) इन तीन दकारों को शरीर नहीं जान सकता. जीव ही उन्हें जानता है. इसकी पुष्टि के लिए एक अनुमान प्रमाण यह भी प्रस्तुत किया जा सकता है "विद्यमानभोक्तक मिंद शरीरम भोग्यत्वाद, ओदनादिवत ॥" । शरीर ओदन (भात) आदि की तरह भोग्य है अत : उसका भोक्ता भी है वही आत्मा है. शरीर में रहते हुए भी शरीर से आत्मा किस प्रकार पृथक है, सो बताया गया है : क्षीरे घृतं तिले तैलम् काष्ठे. ग्नि : सौरभं सुमे । चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत् तथात्मा ७ इतः पृथक् ॥ (दूधमें जिस प्रकार घी, तिल में जिस तरह तेल, लकड़ी में जैसे आग फूलमें ज्यों सुगन्ध और चन्द्रकान्त मणिमें जिस प्रकार अमृत रहता है, उसी प्रकार शरीर में व्याप्त आत्मा उससे पृथक होते हुए भी रहती है प्रभुके स्पष्टीकरण से श्री इन्द्रभूति के हृदयमें वर्षोंसे छिपा हुआ आत्म विषयक संशय ज्यों ही मिटा, त्यों ही उन्होंने आत्मसमपर्ण कर दिया अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ तत्काल प्रव्रजित हो गये. उन्हें प्रव्रजित करके प्रभुने त्रिपदी (उत्पादव्यय धौव्य युक्त हि सत्) का बोध दिया उसके आधार पर उन्होंने "द्वादशाड़ी" की रचना कर डाली. प्रभुके सर्वप्रथम शिष्य श्री इन्द्रभूति गौतम स्वामीको कोटिश : वन्दन. ३८ For Private And Personal Use Only
SR No.008738
Book TitleSanshay Sab Door Bhaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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