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इतनेमें उधरसे प्रभु बोले:- "मुझे मालूम है कि मनमें छिपी हुई एक शंका वर्षों से आपको परेशान करती रही है कि जीव या आत्माका अस्तित्व है या नहीं. इस शंका का आधार परस्पर विरोधी वेदवाक्य हैं. एकत्र वेदमें कहा गया है
विज्ञानघन एवै तेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ॥
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आप इसका अर्थ इस प्रकार समझते हैं-विज्ञानघन ( गमनागमनादि चेष्टावान् चैतन्यपिण्ड आत्मा) ही इन (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश नामक पाँच महा) भूतोंसे उत्पन्न होकर उनके नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है. मरने पर संज्ञा (जीव) नहीं रहती.
अन्यत्र वेद में कहा गया है
इस अर्थ के आधार पर आप समझते हैं कि जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है. जलमें बुलबुलेके समान अथवा मद्यांगोंमें (शराब के लिए सड़ाकर मिलाई गई वस्तुओंमें) मदशक्ति (नशे) के समान पंच महाभूतोंसे जीव उत्पन्न होकर उन्हींमें लीन हो जाता है-मरनेके बाद उसका अस्तित्व नहीं रहता.
स वै अयमात्मा ज्ञानमयो मनोमयो वाङ्मयश्चक्षुर्मय आकाशमयो वायुमयस्तेजोमय आपोमयः पृथ्वीमयः क्रोध
मयो ऽ क्रोधमयो हर्षमय श्शोकमयो धर्ममयो ऽ धर्ममय :|| यहाँ आत्माका विस्तृत परिचय देकर उसका अस्तित्व भी घोषित किया गया है, इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वेदवाक्यों से आपके मनमें सन्देह • उत्पन्न हो गया है कि आखिर जीव (आत्मा) का अस्तित्व है भी या नहीं । ठीक है न ?"
यह सुनकर श्री. इन्द्रभूति चकित हो गये. प्रभुने मानो उनकी दुखती रग छूली थी। मनका सन्देह सबके सामने खुल जानेसे उनकी अल्पज्ञता प्रकट हो गई थी. इससे उनका गर्व गलने लगा. फिरभी किसी तरह अपने मनको समझाने लगे कि हो सकता है, वेदों का अध्ययन करते हुए • इनके मनमें भी वही सन्देह उत्पन्न हो गया है, जो मेरे मनमें उत्पन्न हुआ है, इसलिए सन्देह प्रकट कर देने मात्रसे इन्हें सर्वज्ञ मानना भोलापन
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