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"लघुतासे प्रभुता मिले प्रभुतासे प्रभु दूर ||"
चलते समय दायाँ पैर आगे बढ़कर रुक जाता है. दूसरेसे कहता है- "भइया बायें । तुझे छोड़कर मैं आगे नहीं बढ़ना चाहता. तू आगे चल." फिर बायाँ भी इसी प्रकार आगे बढ़कर रुक जाता है और दाएँ से प्रार्थना करता है:- "आपको ही आगे चलना चाहिये। पहले आप बढिये, पीछे मैं रहूँगा."
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देखा अपने दोनों पाँवोंका प्रेम ? कभी कोई संघर्ष-कोई झगड़ा होता है? कभी कोई स्ट्राइक देखी ? परस्पर पूरक बन कर शरीर को वे लक्ष्य तक पहुँचा देते हैं. चरणोंकी यह पूरकता-प्रेमलता प्रणाम करने योग्य है-अपनाने योग्य है.
अहंकारसे दूर रहनेपर ही यह सद्गुण उत्पन्न होता है, परन्तु इन्द्रभूति इसके अपवाद हैं. उनके लिए जहर भी अमृत बन गया-प्वाइजन भी मेडिसिन बन गया. शास्त्रकारोंने कहा है
"अहंकारो ऽ पि बोधाय ॥"
अहंकार भी उनकेलिए प्रतिबोधक बन गया - अरिहन्तसे परिचयमें आने का निमित्त बन गया.
परन्तु साधारण नियम यह है कि समर्पण के बिना - अहंकार का त्याग किये बिना-नम्रताको अपनाये बिना कुछ प्राप्ति नहीं होती, नलसे जल पानेके लिए घड़ा कहाँ रक्खा जाता है ? नलके माथेपर रख दिया जाता है, वह जलसे वंचित रहता है. कुएँसे जल निकालनेके लिए बाल्टी रस्सी से बाँध कर उसमें उतारने के बाद लोग उसे हिलाते हैं. ज्यों ही बाल्टी झुकती है, जलसे भरने लगती है. यदि बाल्टी झुकाई न जाय तो वह जल से वंचित रहेगी और सारा श्रम व्यर्थ चला जायगा.
ट्रेन प्लेटफार्म पर तभी प्रविष्ट होती है, जब सिग्नल झुकता है-नमता है. रात को स्विच ऑन करने पर झुकाने पर ही इलेक्ट्रिक का प्रकाश कमरे को मिलता है, यदि स्विच ऑफ रहे-ऊँचा रहे "गर्वेण तुंगं शिरः"
( घमण्ड से माथा ऊँचा रहे) तो कमरे में अँधेरा छाया रहेगा. 'मन' भी ऐसा ही स्विच है, उसे उलट दीजिये तो 'नम' बन जाता है. मनमें 'नम' के आते ही तम भाग जाता है-नमस्कार आते ही अन्धकार गायब हो
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