________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
जाता है-आत्माको ज्ञानका प्रकाश मिल जाता है. उस प्रकाशमें आत्माको भीतरी सुखका - शाश्वत आनन्दका अनुभव होता है.
जबतक श्री इन्द्रभूति झुकने को नमनेको तैयार न हुए, वे ज्ञानसे वंचित रहे और ज्यों ही नम्र बने-नमनयोग्य बन गये-वन्दनीय बन गये. उनका अज्ञान ज्ञानमें परिवर्तित हो गया. विकृति ही आत्मा की संस्कृति बन गई. यह था विनयका फल.
तृष्ण की विडम्बना
एक वृद्ध पुरुष मृत्युशय्या पर पड़ा छट पटा रहा था । डॉक्टरों ने उत्तर दिया,
परिवार के लोग उसके चारों ओर चिंतातुर बैठे थे । वृद्धने एक बार आँख खोली और...
आतुर होते हुए पूछा- "मेरी पत्नी कहाँ है ?"
पत्नीने धैर्य बंधाते हुए कहा-मैं आपके चरणों में ही बैठी हूं.
घबराइए नहीं ।
वृद्धने दूसरा प्रश्न किया-बड़ा लड़का कहाँ है ?
हाँ, पिताजी, मैं यहीं पर हूँ ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
लड़केने उत्तर दिया ।
मंझला लड़का ?
वह भी आपके सामने खड़ा है - चिंता न करिए, अंतिम समय में जरा भगवान
का स्मरण कीजिए ।
मंझले लड़के ने उत्तर दिया
और छोटा.... ?
वह भी यह रहा .... । नालायको
सब यही जमे बैठे हो तो फिर दुकान पर कौन गया है ? वृद्धने क्रोध में
Setes
आकर कहा ।
मनुष्य की लालसा और तृष्णा की यह कितनी बड़ी विडम्बना है, कि मृत्युशय्या पर पड़े हुए भी मन दुकान में लगा हुआ है।
२०
For Private And Personal Use Only