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HD ज्यों ही नोटिस मिला, त्यों ही आँख, कान, नाक, जीभ, हाथ, पाँव और ।
पेट की इमर्जेन्सी मीटिंग बुलाई गई. वक्ताओंने कहा:--"सेठ आत्माराम चले गये तो गज़ब हो जायगा-सारी तागड़धिन्ना बन्द हो जायगी-लक्कड़में (जलाये जाने पर) अपनी सब अक्कड़ (अहंकारशीलता) भक्क से उड़ जायगी। एक कविने कहा थाउछल लो कूद लो जब तक है जोर नलियों में । याद रखना इस तनकी उड़ेगी ख़ाक गलियोंमें ।। इसलिए मिल-जुलकर रहनेमें ही समझदारी है. इस मीटिंगमें सर्वसम्मतिसे निर्णय लेकर नोटिसका यह उत्तर भेज दिया गयाः-"आजसे फिर कभी हम परस्पर अहंकार-जन्य संघर्ष नहीं करेंगे. एक-दूसरेके पूरक (सहायक) बनकर आपके द्वारा सौपा गया अपना-अपना कार्य करते रहेंगे. आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे. संगठित रहेंगे." नोटिस का उत्तर पढ़कर सेठ आत्मराम सन्तुष्ट हो गये. आप देखिये तो जरा अपने शरीरकी ओर. इस प्राकृतिक रचनापर ध्यान दीजिये. प्रत्येक अंग कितना सन्तुलित है-कितना विनीत है-कितना परोपकार परायण है चलते समय यदि पाँवके तलेमें काँटा चुभ जाय तो उसे बाहर निकालने के लिए हाथ अपनी पाँचों उँगलियोंके साथ सहसा दौड़ पड़ता है-वह उस समय आमन्त्रणकी प्रतीक्षा नहीं करता, बिना बुलाये क्यों जाऊँ ? ऐसा घमंड उसमें नहीं होता. परोपकारके प्रसंगपर आमन्त्रण की अपेक्षा या प्रतीक्षा कैसी ? हाथ यदि काँटा निकालने के लिए जाता है तो आँख उससे भी पहले पहुँचकर अपनी टोर्च से वह स्थान दिखाती है, जहाँ काँटा चुभकर दर्द पैदा कर रहा है. मनभी अपनी सारी चंचलता छोडकर उसी स्थानपर केन्द्रिय हो जाता है. वह सोचने लगता है कि कैसे मैं शरीर के अंगोंको दर्दनिवारण का कोई उपाय सुझाऊँ और अपनी सार्थकता प्रकट करूँ. कैसी एकाग्रता है-कैसी एकता है । कैसी मंगल-भावना है। अभिमानके हाथी से नीचे उतरने पर ही ऐसी परोपकारवृत्ति पैदा होती है. जहाँ अभिमान है, वहाँ अरिहन्त से लाभ नहीं उठाया जा सकता । कहा
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