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पेटने कहा:- "मैं भोजन पचा कर उसका सार ग्रहण करता हूँ–निस्सार अंश निकाल देता हूँ-प्रत्येक अंग को शक्ति वितरित करता हूँ, इसलिए मैं ही सबसे बड़ा हूँ. यदि मैं हड़ताल कर दूं तो पूरा शरीर कमजोर हो जाय और बीमार कहलाने लगे।" बड़ा भारी संघर्ष था यह-सेठ आत्मारामकी पेढी पर मैनेजिंग डायरेक्टर बनने के लिए. अहंकार के उदय से सब अपना-अपना बड़प्पन बघर रहे थे. सेठजी उस समय सुषुप्त दशामें थे. चैतन्य के सुषुप्त दशा में चले । जानेपर ही इस तरह अहंकार ताण्डव नृत्य कर पाता है, अन्यथा उसका ज़ोर नहीं चलता. विवेक के सो जाने पर ही मनोविकार हावी होते है-आत्मा कर्म से कलुषित होती है-विचार दूषित होते हैं. सेठने बहुत समझाया, परन्तु कोई मानने को तैयार नहीं हुआ. आखिर आत्मारामभाई एक साधु के पास गये-अपनी समस्या लेकर. आज तो हम एक फैमिलि वकील रखते है-एक फैमिली डॉक्टर रखते है, क्योंकि उनके बिना काम चल नहीं सकता. असत्य बोलना है तो वकील का सहारा लेना पड़ता है. असत्य इतना कमजोर होता है कि अपने पाँवसे वह चल ही नहीं सकता. वकील के पाँव से वह दौड़ने लगता है. स्वाद के लोभमें फंसकर पेटको लोग कचरापेटी बना लेते हैं. होटलमें खाना है तो फिर हॉस्पिटलमें ही ट्रांसफर होगा. बिना फैमिली डॉक्टर के आप स्वस्थ नहीं रह सकते । व्यवहार सात्त्विक न हो तो फैमिली वकीलकी और आहार सात्विक न हो तो फैमिली डॉक्टर की जिस प्रकार आवश्यकता का आप अनुभव करते हैं, उसी प्रकार आचरण सात्त्विक न हो तो मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप अपने लिए एक फैमिली साधुभी चुन लीजिये, जो सुख-दुःखमें सच्चे मित्रकी तरह आपका सहायक हो-जीवनका मार्गदर्शक हो-कल्याणकार्य का प्रेरक हो. सेठ आत्मारामने साधुकी सलाहसे एक नोटिस तैयार करके शरीरके पास भेज दिया. उसमें लिख दियाः-"चौबीस घंटों में यदि समस्त अंगोंके मत-भेद समाप्त नहीं हुए, युनिटी (एकता) नहीं हुई, संगठन नहीं दिखाई दिया तो मैं अपना यह मकान (शरीर) छोड़ कर कोई दूसरा नया मकान ले लूँगा-यहाँ से ट्रांस्फर्ड (स्थानान्तरित) हो जाऊँगा."
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