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कः कामकलशस्यांश
स्फोटयेत ठिक्क्रीकृते ? भस्मने चन्दनं कोवा
दहेद दुष्प्राप्यमप्यथ? लौहार्थी को महाम्भोधौ
नौमड, कर्तुमिच्छति ? (पूर्वोपार्जित अपने महत्त्व (बडप्पन या सुयश) की रक्षा में कैसे करूँ ? एक कील प्राप्त करनेके लिए महल को तोडना कौन चाहता है ? धागा पानेके लिए हार तोडना कौन चाहता है ? एक ठीकरी पानेके लिए काम कुम्भको फोड़ना कौन चाहता है ? बहुत कठिनाईसे प्राप्त होनेवाले (दुर्लभ) चन्दन को राखके लिए कौन जलाना चाहता है ? लोहेका टुकड़ा पाने के लिए समुद्रमें नावको तोडना कौन चाहता है ? (कोई ऐसा मूर्खता पूर्ण कार्य करना नहीं चाहता, परन्तु तीर्थंकर महावीर को जीतने के प्रयास में यहाँ आकर मैंने वैसी ही मूर्खता की है, जैसी इन उदाहरणों में वर्णित है) लेकिन यदि मैं आगे न बढ़कर यहीं खड़ा रहता हूँ तो भी मेरा शिष्य समुदाय यही समझेगा कि मैं पराजयके भय से भीत हूँ - डरपोक हूँ, इसलिए आगे तो मुझे हर हालतमें बढना ही है.
और यदि कहीं मैं वाद में इनसे जीत गया तो सर्वज्ञको जीतने के कारण सर्वत्र मेरा सिक्का जमा जायगा. ये देव लोग भी मेरा सत्कार करने लगेंगे-मुझे वन्दन करने लगेंगे. फिर तो मै सम्मानके सर्वोच्च शिखर पर आसीन हो जाऊंगा. विश्वविजेता कहलाने लगूंगा. इस प्रकार सुयशके प्रलोभनने मनमें आशाका संचार किया-चरणोंको गतिशील बनाया. फलस्वरूप वे क्रमशः आगे बढ़ते गये. उधर प्रभु महावीरने निकट आते हुए इन्द्रभूतिको देखा तो नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए मधुर स्वरमें कहा:- “हे इन्द्रभूति गौतम । स्वागत. कुशल तो है न ?" श्री गौतम इन्द्रभूतिकी गोत्र थी. महावीरसे आज उनकी पहली ही बार मुलाकात हो रही थी, इसलिए श्री इन्द्रभूति विचारमें पड़ गये कि बिना
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