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३.
सेंट की दूकान पर जाकर आप भले ही सेंट न खरीदें न लगायें, फिर भी सुगन्ध आती है, इसी प्रकार साधु-सन्तोंके समीप जाने पर मनको शान्ति मिलती है. फिर जहाँ साधुओंके भी आराध्य सर्वज्ञ प्रभु महावीर प्रत्यक्ष विराजमान हों, वहाँ पहुँचने पर कैसी परम शान्ति मिलती होगी ? इसका वर्णन अनुभवी भी नहीं कर सकता, क्योंकि शब्दों के माध्यम से उस आनन्दको अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता.
श्री इन्द्रभूति समवसरणमें प्रविष्ट हो कर उस आनन्दका अनुभव करते हुए मनही मन समझ तो गये कि ये सर्वगुण गणमण्डित सर्वज्ञ तीर्थंकर देव ही हैं, जिनका उल्लेख ऋग्वेद की ऋचाओंमें इस प्रकार हुआ है:"ऋषभादिवर्धमानान्ताः जिना:" "चतुर्विंशतितीर्थङ्राणां शरणं प्रपद्ये" आदि. उसी प्रकार वेदोंमें शान्तिनाथ के और अरिहन्त अरिष्टनेमिके मन्त्र मिलते हैं: "ईस्ट एण्ड वेस्ट" (पूर्व और पश्चिम) नामक अपनी विश्वविख्यात पुस्तक भूतपूर्वराष्ट्रपति स्व. डॉ. राधाकृष्णन् ने लिखा है कि जैनदर्शन उतना ही प्राचीन है, जितना वेदान्तदर्शन जैनधर्म उतना ही प्राचीन है, जितना वैदिक धर्म.
सर्वज्ञ प्रभुके दर्शन कर इन्द्रभूति मन-ही-मन सोचने लगे कि मैं यहाँ कहाँ आ फँसा । वादमें इन से जीतना तो मेरे लिए सर्वथा असम्भव है. अब क्या करूँ ? यदि लौट जाता हूँ तो लोग कहेंगे- "हारके डरसे भाग गया ।" शिष्यों पर भी बुरा असर होगा. आगे बढता हूँ तो भी पराजयका सामना करना पडेगा. जीवनभर वादविवाद करके परवादियोंको परास्त करके मैंने जो सुयश अर्जित किया है, वह सब मिट्टीमें कैसे मिल जायगा अपने महत्त्वकी रक्षा मैं कैसे करूँ अब यही ज्वलन्त प्रश्न मेरे सामने खड़ा है:
कथं मया महत्त्वं में
रक्षणीयं पुरार्जितम् ।
प्रासादं कीलिकातो
भक्तुं को नाम वांछति ?
सूत्रार्थी पुरुषो हा
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कस्त्रोटयितुमीहते ?
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