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उस देवने कहाः"यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात्
तस्याः समाप्तिर्यदि नायुषः स्यात् । पारे परा₹ गणितं यदि स्याद
गणेयनिः शेषगुणोऽ पिसः स्यात् ।।" (यदि तीन लोक के समस्त प्राणी गिनने लग जाय-यदि गिनते-गिनते किसीकी आयु पूरी न हो (कोई मरे नहीं) और यदि परार्द्ध के ऊपर संख्या बना कर गिना जाय तो भी प्रभु महावीर के समस्त गुणों को गिना नहीं जा सकता ।) यह सुनकर बेचारे इन्द्रभूति की हालत और खराब हो गई, मानो घाव पर नमक छिडक दिया गया हो. अहंकार और ईर्ष्या के कारण उसका मन पहले से घायल हो रहा था. उस अवस्था में देव के मुँहसे अपनी प्रशंसा के बदले किसी और की प्रशंसा सुनी तो वह अत्यन्त अशान्त हो गया-बेचैनी से छटपटाने लगा. श्री इन्द्रभूति को निश्चय हो गया कि यह कोई महाधूर्त है-मायाका मन्दिर है बड़ा जादूगर है, कोई ओर्डीनरी आदमी नहीं है, अन्यथा इतनी बड़ी संख्यामें लोगोंको और देवोंको भ्रममें कैसे डाल देता - कैसे मोहित कर देता? ऐसे सर्वज्ञ को मैं अब अधिक देर तक सह नहीं सकता. एक आसमान में क्या दो सूर्य रह सकते हैं ? एक जंगल की गुफा में क्या दो सिंह रह सकते हैं ? एक म्यानमें क्या दो तलवारें रह सकती है ? कभी नहीं. मैं अभी जाकर उसे वाद में पराजित कर देता हूँ. यद्यपि मुझे वादके लिए उसने आमन्त्रित नहीं किया है तो भी क्या हुआ? अन्धकारके समूहको नष्ट करने के लिए सूर्य किसी के आमन्त्रण की प्रतीक्षा नहीं करता. स्पर्श करनेवाले हाथको अंगारा कभी माफ नहीं करता -- आक्रमण करनेवाले शत्रुको क्षत्रिय कभी क्षमा नहीं करता - केश पकडकर खींचनेवाले को सिंह कभी सहन नहीं करता, उसी प्रकार में भी किसी दूसरे की सर्वज्ञता को सह नहीं सकता.
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