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- यह सुनकर श्री इन्द्रभूतिने सोचा कि मुझसे दूसरा कौन बडा सर्वज्ञ हो
सकता है ? मैं ही सबसे बडा सर्वज्ञ माना जाता हूँ यदि सर्वज्ञको ही वन्दन करना इन्हें अभीष्ट हो तो ये मुझे वन्दन कर सकते है. यदि सर्वज्ञ के ही प्रवचन सुनना इन्हें पसंद हो तो ये मेरा प्रवचन सुन सकते है फिर क्यों ये आगे ही आगे बढे जा रहे हैं ? कवि के शब्दों में श्री इन्द्रभूति के उद्गार इस प्रकार हैं :
अहो सुरा : कथं भ्रान्तया
तीर्थांश्च इव वायसा : । कमलाकरवभेका :
मक्षिकाश्चन्दनं यथा । करमा इव सवृक्षान्
क्षीरान्नं शूकरा यथा । अर्कस्यालोकवद् घूका
स्त्यक्त्वा यागं प्रयान्ति यत् ॥ अरे ये देवता भ्रमसे यज्ञको छोडकर उसी प्रकार चले जा रहे है, जिस प्रकार कौए तीर्थोको, मेढक सरोवरको, मक्खियाँ चन्दनको, ऊँट अच्छे वृक्षोंको, सूअर खीर को और उल्लू सूर्य के प्रकाशको । अथवा जैसा वह ज्ञानी है, वैसे ही ये देव है :
अहवा जारिसओ चिय
___सो नाणी तारिसा सुरा बॅति । अणु सरिसो संजोगो
गमनडाणं च मुक्खाणं ॥ (उस ज्ञानी के साथ इन देवोंका संयोग ऐसा ही है, जैसा गाँवके नटों के साथ मूर्खाका ।) गाँव के नट भी मूर्ख और गाँवके रहने वाले लोग भी मूर्ख मूल्से मूर्ख मिलकर प्रसन्न होते हैं.. करेलेकी बेल से किसीने कहा कि तू नीम पर मत चढ, इससे तेरी कडुआहट बढ़ जायगी. परन्तु उसने कहना नहीं माना अन्तमें उस आदमी को कहना पडा- “हे बेल । इसमें तेरा कोई दोष नहीं है, क्योंकि सब प्राणी अपने समान गुणवाले प्राणियोंकी संगतिमें ही प्रसन्न रहते हैं."
॥
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