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दुर्लभ चतुरंग
तिमिर से तेज की ओर बढ़ने का प्रयास करनेवाले जीव के लिए शास्त्रों में चार पुरुषार्थो, चार सुखशय्याओं एवं चार दुर्लभ अंगों का वर्णन आता है । क्रमश: हम उनपर विचार करेंगे ।
धर्म, अर्थ काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ हैं । जैसा कि कहा
धर्मार्थकाममोक्षाणाम् यस्यैकोऽपि न विद्यते ।
अजागलस्तनस्येव
तस्य जन्म निरर्थकम् ॥
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[ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों में से एक भी पुरुषार्थ जिसक जीवन में नहीं होता, उसका जन्म बकरी के गले में लटकने वाले स्तनों की तरह निरर्थक होता है ( बकरी के उन स्तनों से दूध नहीं निकलता)]
आज सारी दुनिया में अर्थ और काम का ही बोलबाला है; धर्म और मोक्ष की और ध्यान देने की किसी को फुरसत ही नहीं मिलती; इसी लिए इतनी अधिक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं कि सभी राष्ट्रीय नेता उन से परेशान हैं ।
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सब से पहला पुरुषार्थ धर्म है। अर्थ के उपार्जन में भी धर्म (ईमानदारी, नैतिकता) की आवश्यकता होती है और अर्थ (धन) के उपयोग (परोपकार) में भी । दान करने से पुण्य होता है और पुण्य से धन की प्राप्ति होती है । इस प्रकार धर्म और अर्थ आपस में एक दूसरे पर निर्भर हैं। उनका घनिष्ट सम्बन्ध हैं। तीसरा पुरुषार्थ है काम । गीता में लिखा है :
धर्माविरुद्धो भूतेषु
कामोऽस्मि भरतर्षभ !
( हे अर्जुन ! मैं प्राणियों में धर्म के अविरुद्ध काम हूँ)
जो काम धर्म के विरुद्ध है, वह पाप है- व्यभिचार हे त्याज्य है। काम को धर्म की मर्यादा में रहना चाहिये । शास्त्रों में श्रावक-श्राविकाओं के लिए चौथा अणुव्रत इसी लिए बनाया गया है। श्रावक “स्वदारासन्तोष” का और श्राविकाएँ “स्वपति सन्तोष" का पालन करें तो उनका काम धर्म को मर्यादा में रहेगा ।
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