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इस प्रकार जिसके जीवन में धर्म ओतप्रोत हो जाता है, उस में समस्त सद्गुणों का धीर-धीरे निवास होने लगता है । सद्गुणों में त्याग और संयम की परकाष्ठा होने पर तपस्या से कर्मो का क्षय हो जाने पर अन्तिम ज्ञान और अन्तिम परुषार्थ मोक्ष का आनन्द मिलता है ।
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वह आनन्द शाश्वत होता है, स्थिर होता है । दिन-भर परिश्रम करने के बाद ही विश्राम का आनन्द लेने के लिए मनुष्य सोता है । सोने के लिए शय्या का उपयोग करता है । शास्त्रकारों ने जीव के लिए चार सुखशय्याएँ बताई हैं । :- (१) श्रवण, (२) मनन, (३) माध्यस्थ्य और (४) आत्मचिन्तन ।
प्रभु की वाणी को गुरुमुख
सुनना 'श्रवण' है। श्रवण करनेवाला ही श्रावक कहलाता है। सुनने वाला ही जान सकता है । महापुरुषों के अनुभव शास्त्रों के रूप में मौजूद हैं। जो विशिष्ट विद्वान हैं, वे तो शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त कर लेंगे; परन्तु अन्य सब लोग गुरु मुख से व्याख्यान सुनकर ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
दूसरी शय्या है मनन । पशु खाने के बाद जुगाली करते हैं । इससे पाचन अच्छा होता है । इसी प्रकार श्रुतज्ञान पर मनन करना चाहिये । जो कुछ सुनने में आया हो, उस पर विचार करना चाहिये । बिना विचार किये पढ़ना या सुनना वैसा ही व्यर्थ हो जाता है. जैसा बिना पचाये खाना । मनन करने से सुना हुआ ज्ञान पुष्ट होता है ।
तीसरी शय्या हे माध्यस्थ्य | इसका मतलब है दूसरों के दोषों पर उपेक्षा करना । लोगों को दूसरों की लड़ाई देखने में दूसरों की निन्दा सुनने में दूसरों के दोषों की चर्चा करने में रस आता हैं; किन्तु धर्म प्रेमी यह सब प्रपंच पसंद नहीं करता । वह अपने दोषों पर ही ध्यान देता है, दूसरों के दोषों पर नहीं ।
चौथी शय्या है आत्मचिन्तन | इसका मतलब है अपने आपक विषय में विचार करना । में कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ क्यों आया हूँ ? मेरे जीवन का प्रयोजन क्या हैं ? प्रयोजन को पा रहा हूँ या नहीं ? कौन सी कमजोरी उस उपाय के अवलम्बन में बाधक हैं ? उस कमजोरी को दूर करने के लिए में क्या कर रहा हूँ ? ऐसे प्रश्नों पर विचार करने से वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है, जो जीव को मोक्ष मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है ।
प्रभु महावीर स्वामी ने चार दुर्लभ तत्त्वों की चर्चा की है :
चत्तारि परमंगाणि
दुल्लहाणि य जंतुणो ||
मणुस्सत्तं सुई सद्धा
संजमम्मि य वीरियं ॥
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