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___पा की प्रतिमा को हम एसी वस्तुएँ अर्पित करते हैं, जो हमें जीवन में बहन प्रिय लगती हैं । इस प्रकार त्याग का अभ्यास करते हैं । कहा
"त्यागाच्छान्तिनिरन्तरम् ।।" (त्याग से तत्काल शान्ति प्राप्त होती है ।)
जैन धर्म में त्यागियों का ही सम्मान किया जाता है । अरिहन्त और सिद्धा दो देव हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन गुरु हैं । ये पाँचो पद त्यागियां क पद हैं । नमस्कार महामन्त्रा में इन्हीं पाँचो पदों को वन्दन किया जाता है ।
सदन और सगर के बाद सधर्म का विश्लेषण करके उसे चार भागों में विभत किया गया है - दर्शन, ज्ञान, चारित्रा और तप ।
भोगविलास में रुचि तो संसार के सभी जीवों में होती है, परन्त जिन भव्य जीवों की रूचि तत्त्वज्ञान में होती है, वे ही आत्मकल्याण कर पात हैं । धर्मशास्त्रों के प्रति यह रूचि (श्रद्धा) ही दर्शन है ।
श्रद्धा का विवेक की आँख चाहिये । विवेक से श्रद्धा शुद्ध होती है । विवेकशून्य श्रद्धा अन्धश्रद्धा बन जाता है । धर्मशास्त्रों के प्रति श्रद्धा हा : पर्याप्त नहीं हैं ! उनका अध्ययन भी आवश्यक है । शास्त्रों के अध्ययन
से - प्रवचनों के श्रवण से- ज्ञानियां के साथ बैठकर चर्चा करने से विवेक को जा आरव खलती है, उसे ज्ञान कहते हैं ।
श्रद्धापर्वक शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान का आचरण चारित्र है, जिसमें प्रवृत्ति रूप पाँच समितियां और निवत्तिरूप तीन गप्तियां का समावेश होता है
चारिा क पालन में जो परीषह (भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि बाईस) और उपसर्ग (विविध उपद्रव) आते हैं, उन्हें समभाव और शान्ति से सहना तप है । से शास्त्रों में अनशनादि छह बाह्य और प्रायश्चित्तादि छह आय-तर कल बारः प्रकार क तगों का वर्णन आता है । ता से कमों की निर्जरा होती है. आत्मा हल्का हाती जाती है । __ इस कार दो सदेव, तीन सगर और चार सुधर्म के योग स नवपद बनते हैं । इन नव पदों की पूजा, आराधना और साधना से जीवन परम पद (माक्ष) का अधिकारी बनता है । मोक्ष के महान् मधुर फल का बीज है- भागों का त्याग !
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