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त्यो अधिक से अधिक सख साप होता जा ।। है । वचनों का अनुराग छूटता है - मनुष्यात्र में; इसलिए इस भव में उत्पन्न जीव ही माक्ष का अधिकारी बन सकता है और साश्वतसरख पा सकता है ।
भोग में अशान्ति त्याग में शान्ति । प्रतिमा की पूजा में भी त्याग की प्रधानता होती है। पूजा के आठ प्रकार क्रमश: ये हैं :- (१) अनपजा, (२) चन्दन पजा, (३) पापपूजा, (४) धूपपूजा. ('५) दीपकराजा, (६) अक्षतपूजा, (७) नवेद्य पूजा और (८) फलपना ।
पहली पूजा क समय पजक सोचता है कि जल जिस प्रकार प्रतिमा के मल को धाता, उसी प्रकार मरी आत्मा पर जा कर्ममल लगा है, रसे मझ धोकर साफ, वरना ।
दसरी पजा कर पग सावा है कि जिस प्रक' चन्दन स्वयं मसकर अपनी शीतलता और सुगन्ध ससरों को सरर देता है, उसी प्रकार मुझे भी स्वयं संकर महकर दूसरों को सम्व पहचाना ।
तासरी गजा क समय सोचता है - फल क ामान भरा जीवन भी क्षणिक हे उरो सुन्दर र कोमल और सवामिन बगाना है, वाटो तो नरह तीक्ष्ण और असहा नही ।
चीची पूजा क समय सोचता है कि जिस प्रकार घर का गाँउ बंगामी होता है. लेस र मन की ऊगामी बनना हकमशः उन्नति के शिखर पर चदना है।
पांचनी पजा क स साना कि दीपकः स जिस प्रकार प्रकार हट जाता है, उसी प्रकार प्रभ क श्रतज्ञान से (आगम के रू? में विद्यमान उपदेश से) मेरे अज्ञान को मझ हटाना है।
ट्री पूजा के समय सोचता है कि जिस प्रकार अदक्षत उल है.. सी प्रकार मुझे भी अपनी आत्मा का, जो अखण्टु हे, पूर्ण उजवन बनाना
सातवीं पजा के समय सोचना है कि वद्य का विवि आहार करक चार गाना में बहन-बका भाटककार अन भझे नार अमाहारी सिद्धपट पाम करना ।
अन्तिम पूजा क समर सावा है कि फन का सर्वोत्तम बार है, लेम हा मोक्ष जीवन का सवाल पिकास है, पर वृक्षम का अधिक मधुर काई अस्त हो ही री पकार जाम से जोक मधर कछ भी नहीं है । प्रम न बरः भाक्ष सब प्राप्त किया है; महा मी पापा करना है ।
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