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की फक्ट्री है । उसमें जिस रॉ मटेरियल ( भोजनसामग्री) की सप्लाई की जाती है, वह बहुत सुन्दर सुगन्धित और स्वादिष्ट होती है, परन्तु उसका प्रोडक्शन ? उसका नाम लेना भी अच्छा नहीं लगता !
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ऐसे शरीर के लिए पाप करना मूर्खता है । शरीर को स्वस्थ रखना तो कर्तव्य है; परन्तु उसके पोषण के लिए पापचरण करना अकर्तव्य है । शरीर से परोपकार कीजिये- साधुओं के दर्शन कीजिये- तीर्थयात्राएँ कीजिये - ध्यान कीजिये - तपस्याएँ कीजिये; परन्तु शरीर के लिए या द्वारा पाप मत कीजिये ।
कुछ लोग कहते हैं "महाराज ! पेट की समस्या बहुत बड़ी है । उसके लिए पाप न करें तो क्या करें ?"
इसके उत्तर में कहना है “भाई ! ईमानदारी ही सबसे अच्छी नीति हे औनेस्टी इज द बेस्ट पोलिसी, यदि आप ईमानदारी से श्रम करते रहें तो पेट से लेकर पेटी तक का समाधान हो सकता है । बेईमानी का भाँडा फूटने पर आपकी ईमानदारी पर भी लोग विश्वास नहीं करेंगे । कहावत भी है :
जैसे हाँडी काठ की, चढे न दूजी बार !
एक बार बेईमानी की कलई खुल जाने पर आपका सारा धन्धा ही चौपट हो जायगा । इससे विपरीत ईमानदारी के साथ किया गया श्रम जीवनभर आपको कमाई देता रहेगा ।"
धर्मशास्त्र हमें ईमानदार रहने की प्रेरणा देते हैं । वे आत्मा के स्वरूप का परिचय देते हैं । आत्मा एक नित्य तत्त्व है । शरीर अनित्य है नश्वर है । जैसी आत्मा हमारी है, वैसी ही दूसरों की है। हम यदि दूसरों की बेईमानी पसंद नहीं करते तो दूसरे हमारी बेईमानी कैसे पसंद करेंगे?
धर्मशास्त्र हमें संयम भी सिखाते हैं । श्रीकृष्ण महाराज अपनी कन्याओं से कहते हैं “यदि अपने आपको महारानी बनाना चाहो तो प्रभु नेमिनाथ के मार्ग पर चलो संयम ग्रहण करो । इससे आत्मकल्याण तो होगा ही समाज में सम्मान भी खूब मिलेगा । इससे विपरीत यदि गुलामी करना चाहो - किसी की दासी बनना चाहो तो राजमहल में ही रहो। तुम्हारा विवाह कर दिया जायगा ।”
संयम का पालन स्वर्ग पाने या सम्मान पाने के लिए नहीं; किन्तु मोक्ष पाने के लिए होता है । जैसे खेत में अनाज के साथ घास-फूस अपने
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