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इस से क्रुद्ध होकर निरीक्षक ने प्रधानाध्यापक से शिकायत की। प्रधानध्यापक ने कक्षा शिक्षक को डाँटा तो वह बोला- “सर, असली कक्षा शिक्षक मैच देखने गये हैं । में उनका डुप्लीकट हूँ !”
इस पर कांपते हुए कक्षाध्यापक ने निरीक्षक क पांव पकड़ लिग और कहा :-- "मुझे बचाइए; अन्यथा मरे बाल-बच्चे भरखें मर जायगे !"
निरीक्षक ने हँसते हुए कहा :- “डरने की कोई बात नहीं । म स्वयं भी डुप्लीकट निरीक्षक हूँ !”
इस प्रकार जहाँ सर्वत्र डुप्लीकशन चल रहा हो, वहाँ सच्ची शिक्षा कैसे मिल सकती है ? शिक्षा के बाधक तत्त्व पाँच हैं :
अह पंचहि ठाणे हिं, जोहिं सिक्खा न लभई ।
थभा कोहा पमाएण, रोगेणालस्सएण य ।। (अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य - इन पाच कारणों स शिक्षा प्राप्त नहीं होती)
पहला बाधक तत्त्व है - अभिमान । Pride has a fall (अभिमान का पतन होता है) हिन्दी में कहावत हैं - "प्रमंडी का सिर नीचा !"
"झुकता वहीं हैं जिसमें जान हैं अक्कडता मुड़द की पहचान है ।
अभिमानी अपने को गुरू से भी अधिक ज्ञानी समझता है । उसक प्रश्न जिज्ञासा की शान्ति के लिए नहीं, गुरु की परीक्षा के लिए होते हैंगुरु को निरूत्तर करने के लिए होते हैं - उस नीचा दिखान के लिए हात हैं । ज्ञान के लिए विनय आवश्यक होता है । विनीत ही विद्या का उपार्जन कर सकता है । कोई भी गुरु अविनीत शिष्य से प्रसन्न नहीं रह सकता और प्रसन्नता के बिना वह विद्या वितरित नहीं कर सकता ।
शिक्षा के लिए दूसरा बाधक होता है- क्रोध । स्वामी सत्यभक ने लिखा है :
क्रोध बडा भारी नशा, पागलपन है क्रोध । क्रोधी पा सकता नहीं, कर्तव्यों का बोध ।।
कर्तव्य का खयाल क्रोधी को नहीं रहता । अभिमान यदि उबलता जल है तो क्रोध उसकी भाप है । अभिमान से क्रोध अधिक बरा है । ८२
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