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शीतन शान्त और सुस्थिर था । रानी के हाव- भाव का, कटाक्षों का, कामल शब्दों का एवं अंगप्रदर्शन का उनक मन पर कोई असर नहीं हुआ। इस प्रकार सार प्रलोभन जब व्यर्थ रहे तब रानी ने अन्त में भय का प्रयोग किया । उसने धमकी दी कि यदि मरी इच्छा तृप्त नहीं की तो मैं चिल्लाकर तुम पाणदंड दिलवा दूंगी; किन्तु इस पर भी वे अविचलित रहे । शान्ति से प्रभ शान्तिनाथ का स्मरण करते रहे ।
गनी ने आखिर अपने हाथों से अपनी दशा बिगाड़ ली और सेठ पर बला चार का झठा आरोप लगा दिया, राजा ने कद्ध होकर शूली की सजा द दी; किन्न आखिर वहीं शली उनक लिए सिंहासन बन गई अर्थात उनका प्रतिष्ठा का कारण बनी । आज तक हम उनका यशोगान करते हैंश्रद्धा से उनका नाम स्मरण करते हैं ।
दल्ली भ्रमरी का ध्यान करते-करते भ्रमरी बन जाती है, उसी प्रकार आत्मा परमात्मा का ध्यान करत-करत स्वयं भी परमात्मा बन जाती है । संयम ग जीवन पवित्र और वन्दनीय बन जाता है ।
म जानते हैं कि चारित्र मोहनीय कर्म का उदय चारित्र ग्रहण करने में बाधक बनता है। फिर भी यदि संकल्प सदृढ़ हो तो संयम ग्रहण करना सरला जाता है । संकल्प में से शक्ति अपने आप प्रस्फुटित होती है ।
मनन कमजार हो गये हों कि हमारे लिए शय्या से उठकर चलना -फिरना नक असंभव-सा हो गया हो; फिर भी यदि भवन में आग लग गई हा ता यह सनते ही तत्काल उठ कर बाहर भागने की शक्ति शरीर में न जाने कहाँ से पदा हो जाती है । यही बात संयम के लिए समझें ।
सारांण यह है कि श्रद्धा, भक्ति, विनय और सुदृढ़ संकल्प के साथ संयम को अपनाने पर कोई भी मनुष्य स्वयं सच्चिदानन्द बन सकता है ।
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