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पहले पुस्तक कम थीं, श्रद्धा अधिक थी। आज परतंक बढ़ गई है।
“तद्विद्धि प्रणिपातेन ॥ - गीता (प्रणाम करके 'उस' को जान लो)
पहले प्रणाम करक लोग ज्ञान प्राप करते थे; किन्तु आज ज्ञान प्राप्त करक भी प्रणाम करने में संकुचाते हैं - लजाते हैं ।
श्रद्धा से प्राप्त ज्ञान संयम की ओर ले जाता है । सप्रसिद्ध साहित्यकार जार्ज बर्नार्ड शाने लिखा है ।
अपने कटुम्ब क बालकों के मुण्ड काटकर गमल में लगायं ना अच्छा नहीं लगेगा । उसी प्रकार झाड़ या पौध से फल तोड कर उन्हें फल दानी में सजाना भी उचित नहीं हैं । सौन्दर्य दूर स दखन क लिए है, छ कर या मसलकर तहस-नहस करन के लिए नहीं । पुष्पा क सौन्दर्य और सौरभ को नष्ट करने का हमें क्या अधिकार हैं ?" __ अहिंसा की यह दृष्टि विचारकता से उत्पन्न हुई है । विचारकता से ही संयम आया था ।
सुदर्शन शेठ में - उनक यौवन पर माध होकर कपिला ने उसका लाभ उठाना चाहा । उसंक जाल में फंसकर भी वं जल में कमल की तरह बच गयं । बोल- “कपिला; ! में नपंसक हूँ। मझ में वह पौरुष नहीं है, जिसकी कामना तू कर रही है ।"
सुदर्शन सेठ की यह बात संयम की रक्षांक लिए थी, इसलिए असत्य होकर भी सत्य थी । स्वदारासन्तोष व्रत के धारक सुदर्शन सेठने किसी क घर अंकले न जाने की प्रतिज्ञा ले रक्खी थी। रूप और यौवन भी धन हैं । लुटेरों से इन्हें भी बचाने के लिए खूब सावधान रहना पड़ता है ।
जब कपिला दासी ने महल क झरोखे से सदर्शन सेठ को मनोरमा सेठानी और बच्चों के साथ देखा तो उसक मन में आग लग गई । वह समझ गई कि झूठ बोलकर सेठ ने मझे उस दिन धाका दिया था । भेड़ के शरीर पर आग लग जाय तो वह इधर-उधर दौडकर सब जग आग लगाने की कोशिश करती है। ऐसा ही कपिला ने किया । उसने महारानी अभया की वासनाग्नि भड़का दी । फलस्वरूप पौषधशाला में जन्व संट, ध्यान में लीन थे, तभी उनका अपहरण करके उन्हें एकान्त कक्ष में रानी के सामने उपस्थित कर दिया गया ।
मन जल जैसा तरल हो तो छोटे से कंकर से भी उराम तरंग पदा हा जाती हैं । इसके विपरीत यदि बर्फ जैसा सदढ हो तो पत्थर नः प्रहार का भी उस पर कोई असर नहीं होता । सठ का मन हिमशेल की तरह
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