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मन मथुरा दिल द्वारका काया काशी जान । दसों द्वारका देहरा ता में ज्योति पिछान ।।
वह आत्मज्योति आठ को क आवरण में छिपी हुई है। इस आवरण को हटाने के लिए साधना करनी पड़ती है ।
कममल से श्यामल आत्मवस्त्र को भक्तिजल से धोना है ।
गा। जंगल में दूब चरती है; परन्तु उसका मन बछड़े में होता है । नट रस्सी पर बिना आधार क चलता है - दौड़ता है - नाचता है, परन्तु उसका मन सन्तुलनपर रहता है । पनिहार ने आपस में कितनी भी बातें करती रहें, पर उनका मन मडे पर टिका रहता है । ठीक इसी प्रकार दनिया क सार काम करते रहने पर भी भक्त का मन भगवान् पर टिका रहता है ।
जरा झाडू लगाने से मकान स्वच्छ रहता है, वैसे ही जिनवाणी सुनने और याद रखने से विचार शुद्ध रहते हैं ।
शुद्धि और बुद्धि जिसमें नहीं होती, वही मनमाना व्यवहार करंक दुखी होता है । भक्ति में कसी शक्ति होती है । एक दृष्टान्त द्वारा बताना चाहूँगा :
किसी राजा ने प्रसन्न होकर अपने चाकर स मनमानी वस्तु माँगने क लिए कहा । वह बोला :- “जब में द्वारके बाहर अपनी डयूटीपर रहूँ और आप मा पास से निकलें तब मेर कानम कहते रहें कि मैं भगवान को न भूलूँ । बस, यही मरी माँग है ।"
राजा आत जात उस चाकर की इच्छा क अनुसार उसके कान में कहने लगा- “तम भगवान को मत भूल जाना ।"
लोगों ने जब यह दृश्य देखा तो वे समझने लगे कि यह चाकर राजा को बह। प्रिय है । हो सकता है, राजा ने इसे अपना गुप्तचर बना लिया हो । फल यह हुआ कि उस चाकर की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई । यह था - भक्ति का चमत्कार ।
सदा, सगर और सुधर्म की उपासना से जब मोक्ष मिल सकता है, तब सांसारिक प्रतिष्ठा क्यों नहीं मिलेगी ? वह तो बहुत साधारण वस्तु है । __कलागी ने कहा था :-- “श्रद्धा की निष्फल नहीं होती। उससे अचिन्तित कार्य भी पूर्ण हात हैं । श्रद्धा जितनी अधिक गहरी होती है, आत्मकल्याण भी उतना ही जल्दी होता है ।"
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