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सच्चिदानन्द
परमात्मा को “सच्चिदानन्द" कहा जाता है । इस शब्द में तीन पद हैं- सत, चित् और आनन्द ।
सत् का अर्थ है - सत्ता या अस्तित्व, चित् का अर्थ चैतन्य हे और आनन्द का अर्थ है - शाश्वत अखण्ड अनन्त सुख ।
सत् और चित् तो प्रत्येक जीवमें हैं; क्योंकि उसका अस्तित्व है और वह जड़ से भिन्न हैं; परन्तु आनन्द के बदले उस में क्षणिक सम्व हे । यही आत्मा से परमात्मा का अन्तर है ।
कहा जाता है :- “अण्णा सो परमप्पा ।।" (शद्ध गण स्वरुप अपनी सबो की आत्मा परमात्मा स्वरुप हैं) यदि विषयों से प्राप्त होनवाले क्षणिक सुख के पीछे न पड़कर आत्मा शाश्वत सरख की रखोज में लग जाय और उसे प्राप्त कर ले तो वह परमात्मा बन जाय । सन्त, साध, परषि, मनि, महात्मा, ज्ञानी, ध्यानी, दार्शनिक और भक्त जीवन भर इसी साधना में अर्थात् अनन्त सुख के अन्वेषण में लगे रहते हैं ।
समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृतकलश को कहाँ रक्खा जाय ? गह प्रश्न जब खड़ा हुआ तो जितने भी सुझाव आये, वे सब निरस्त हो गयe; क्योंकि सब जगह उसके नष्ट होने या चरा लिये जाने की सम्भावना थी । अन्त में मनुष्य के हृदय में रखने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया । तब से आनन्द का बह अमृतकलश वहीं सुरक्षित रूप से पड़ा है; परन्तु अपने हृदय की और उसका ध्यान ही नहीं जाता, जहाँ वास्तव में वह मौजूद है ।
फल ने पुकारा :- “ए फल ! तू कहाँ है ?" फुल बोला :- “तर हृदय में छिपा हूँ !"
कवी रवीन्द्रनाथ ठाकर ने इस संवाद के द्वारा वही बात कही है। महात्मा कबीर कहते हैं :
"मोकूँ कहाँ ढूँढे बन्दे मै तो तेरे पास में ।।"
अन्यत्र वे कहते हैं :
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