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से कोई किसी को सखी या दःखी नहीं कर सकता । शुभाशुभ कर्मों से ही अकल या प्रतिकल परिस्थितियां बनती है ।
झराख म खड़ा बहिन ने मनिवष में गुजरते भाई को दखकर कहा :"इनका शरीर पहल कसा सन्दर था और तपस्या के कारण अब सूखकर कैसा काटा हो गया है !" __ यह सनकर राजा की आशंका हुई कि वह मुनि कहीं इसका पूर्वप्रमी ना नहीं ? राजा न हक्म दिया कि उस साधु की चमड़ी खींचकर लाई जाय । सिपाही गय । कसाई को चमड़ी खींचने का काम सौपा गया । साध ने शान्तिपूर्वक अपना तन कसाई का सौंप दिया और मन अरिहंत को । मनि ने कसाई का कह दिया :- “मरी हड्डियांस कहीं तुम्हार हाथों में चमड़ा उतारते वक्त चोट न लग जाय ।"
इस प्राणान्न उपसर्ग का दूषरहित माध्यस्थ्य भाव से सहने क फलस्वरूप मुनि क कर्म कट गये । उन्हें कवलज्ञान हुआ माक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त
हुआ ।
__ मुनि की रक्तरंजित महपत्ती को खाने की वस्तु समझकर एक चील ले उड़ी; किन्न उसम खाने योग्य कल भी नहीं था; इसलिए उसे चोंच से छोड़ दिया । महपत्ती झरोख में बहिन के पास गिरी । वह उसे देखकर मूर्छित हो गई । जब राजा को वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उ। अपने विवेकहीन आदश क लिए मार पश्चात्ताप हआ । अन्त में राजा और रानी दोनों साध- साध्वी बनकर आत्मकल्याण की साधना में लग गये ।
इसे कहते हैं- आत्मज्ञान ! कहाँ है ऐसा आत्मज्ञान, जो कवल चर्चा में नहीं, व्यवहार में भी दिखाई द ।
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