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परोपकार
परोपकार सब से बड़ा धर्म है और समस्त शास्त्रों का सार I
करोड़ो धर्मशास्त्र सौ बैलगाड़ियों में लाद कर एक पंडित प्रवचनार्थ किसी राजमहल में पहूँचा, उसे राजा ने कहा: “मेरे पास इतना समय नहीं है कि मैं प्रतिदिन कुछ घंटे शास्त्र श्रवण के लिए निकाल सकूं । केवल एक मिनिट में आप जो कुछ समझा सके, समझा दीजिये ।'
इस पर पंडितजी ने कहा :- "सुनिये
श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि
यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः ।
परोपकारः पुण्याय
पापाय परपीडनम् ||
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( करोडां धर्मग्रन्थो में जो कुछ कहा गया है, उसे में आधे श्लोक से प्रकट कर देता हूँ कि परोपकार से पुण्य और पर पीड़ा से पाप होता है)
पंडितजी के चातुर्य से परिपूर्ण इस सारगर्भित उत्तर से प्रसन्न होकर राजा ने यथोचित्त पुरस्कार के द्वारा उन्हें सम्मानित किया ।
इस कथा से परोपकार का महत्त्व समझा जा सकता है ।
अशुभ कर्मों के उदय से परिस्थिति प्रतिकूल हो; फिर भी हमें परोपकार से मुँह नहीं मोड़ना चाहिये । शुभ कर्मोदय के बाद परिस्थिति निश्चय ही अनुकूल बन जायगी ।
पारस्परिक अविश्वास के कारण आज प्रेम नष्ट हो गया है, जो परोपकार का प्रेरक है । यदि हम दूसरों का उपकार नहीं करते तो यह आशा कैसे कर सकते हैं कि दूसरे हम पर उपकार करेंगे ।
उपकार तन और धन के ही नहीं, वचन से भी होता है । मधर शब्द हर्ष उत्पन्न करता है और कटुक शब्द शांक । कहा है :
" एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्तः
स्वर्गे लोके च कामधुग्भवति !”
(अच्छी तरह जाना हुआ एक शब्द यदि ठीक ( समय पर ठीक ढंग से) प्रयुक्त किया जाय तो वह स्वर्ग में और संसार में इच्छाओं की पूर्ति करने वाला होता है)
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