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स्वामी दयानन्द सरस्वती । वे जानते थे कि शिष्य को सुधारने के लिए गुरुजी कितने भी क्षुब्ध हो जाय; परन्तु उन के हृदय में द्वेष नहीं होता । वहाँ केवल प्रेम और वात्सल्य ही भरा रहता हैं :
गुरू कुंभार सिख कुम्भ है, गढ़-गढ़ काडै खोट । अन्दर हाथ सहार दै ऊपर मारे चोट ।
गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा । घड़े पर कुम्हार चोट लगाकर खोट निकालता है और एक हाथ से घड़े के अन्दर उसे सहारा भी देता है । मन में वात्सल्य रखकर माँ जिस प्रकार बेटे की पिटाई करती है, उसी प्रकार गुरु भी करता हैं । कु गुरु की बात अलग है । समझदार व्यक्ति कु गुरु से बचने का प्रयास करते हैं । कु गुरु शिष्यों के अन्धविश्वास का लाभ उठाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं ।
एक बुद्धिमान् पढ़ा लिखा निर्धन युवक था । उसे अर्धागिनी की तलाश थी । एक सेठ इस शर्त पर अपनी कन्या से उसका विवाह करने को तैयार था कि वह धर्मान्तरण कर ले । युवक ने सोचा कि धर्म तो आचरण की चीज है । धर्म बदलने से आचरण नहीं बदलेगा । अच्छे आचरण का कोई धर्म विरोध भी नहीं करेगा; इसलिए धर्मान्तरण की उसने स्वीकृति दे दी।
विवाह की तैयारियाँ होने लगी। वर और कन्या एक दूसरे को चाहते थे । विवाह मण्डप में जाने से पूर्व युवक से कहा गया कि वह स्नान कर के शुद्ध वस्त्र धारण कर ले और फिर गुरुजी के पास चलकर गुरुमन्त्रा ग्रहण कर ले । ऐसा करने से मान लिया जायगा कि धर्मान्तरण हो चुका है । फिर विवाह विधी सम्पन्न की जायगी ।
युवक ने वैसा ही किया । शुद्ध वस्त्रा पहिनकर वह उस स्थान पर या. जहाँ सेठजी के गुरुजी बिराजमान थे। शेठजी के संकत पर गुरुजी ने युवक के कान में गुरुमन्त्र सुन दिया । मन्त्र छोटा-सा था । याद भी हो गया ।
युवक ने पूछा :- "इस मन्त्र के जाप से क्या लाभ होगा ?" गुरु :- “स्वर्ग मिलेगा ।" युवक :- “क्या सचमुच मिलेगा ?" गुरु :- “अरे भाई ! इस मन्त्रा के जप से तो वैकुण्ठ तक मिल जाता
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