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(गुरुओं की कठोर अक्षरों वाली फटकार से पीडित होने वाले शिष्य ही महान बनते हैं । जो कसौटी पर घिसी नहीं गईं, वे मणियाँ कभी राजाओं के मुकुट में स्थान नहीं पातीं !)
गुरु का उपदेश डायनेमिक फोर्स है, जिससे गति हो सकती है । गुरु का आदेश वह रसायन है, जिससे शिष्यका आध्यात्मिक जीवन परिपुष्ट होता है; मानव असामान्य बन जाता है, वह प्रभुता के पथ पर चल सकता है- प्रभता पा सकता है। मानव के हृदय में छिपी हुई दिव्यता गुरुसमागम से बाहर निकल पड़ती है। गुरु की अनुपस्थिति में भी श्रद्धा अपना कार्य करती रहती है ।
क्षत्रिय न होने के कारण एकलव्य को द्रोणाचार्य ने शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया; किन्तु एकलव्य इससे निराश नहीं हुआ । उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति मिट्टी से बनाकर जंगल में किसी जगह उस की स्थापना कर दी और श्रद्धापूर्वक अन्त: करण के आदेश को गुरु का आदेश मानकर धनुर्विद्या व प्रायोगिक अभ्यास करने लगा । फलस्वरूप वह द्रोण के प्रिय शिष्य अर्जुन से भी अधिक निपुण बन गया । द्रोणाचार्य को भी उसकी कुशलता देखकर दाँतों तले उंगली दबानी पड़ी थी ! __ महाभारत के इस अनुपम दृष्टान्त से सिद्ध हो जाता कि गुरु के प्रति श्रद्धा में केसा चमत्कार होता है !
किन्तु कोरी श्रद्धा से ही जीवन में उन्नति हो जायगी ऐसा भ्रम किसी को नहीं रखना चाहिये । श्रद्धा के बाद गुरु उपदेश को अपनाना भी जरूरी है । आचरण से ही जीवन आदर्श बनता है । गुरु सहिष्णुता का उपदेश देते हैं और फिर डाँटते फटकारते हैं । क्यों ? सहिष्णुता को अपने जीवन में हमने कितना अपनाया है ? इसकी परीक्षा लेने के लिए !
एक शिष्य ने आश्रम में झाडू लगाकर कचरा एक टोकरी में भरकर रखा दिया; परन्तु दूसरे किसी सेवाकार्य में उलझ जाने के कारण टोकरी वहीं पड़ी रह गई । कचरा फेकने की बात याद नहीं रही ।
कुछ समय बाद प्रज्ञाचक्षु गुरुजी उधर से निकले और टोकरी से टाँग टकराई तो गिर पड़े । इस पर गुरु ने शिष्य को लाठी से खूब पीटा । शिष्य हटा नहीं और क्षमा माँगते हुए शान्ति से प्रहार सहता रहा । लाठी की चोट का चिन्ह शिष्य की पीठ पर जीवन भर के लिए अंकित हो गया । लोगों के पूछने पर वह शिष्य बडें गर्व से कहा करता था कि यह तो मेरे गुरुजी का प्रसाद है !
गुरूजी थे- श्री विरजानन्दजी सरस्वती और शिष्य का नाम था -
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