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ऐसे गुरुओं को भविष्य में पछताना पड़ेगा - ऐसी चेतावनी महात्मा कबीर ने इन शब्दों में दी थी :
कहते सो करते नहीं, मुँह के बड़े लबार । काला मुँह हो जायगा,
साई के दरबार ।। केवल वेष देखकर किसी को 'गुरु' नहीं मान लेना चाहिये । कहावत
“पानी पीजे छानकर !
गुरु कीजे जानकर !!" विवेक से जान-पहिचानकर ही हमें 'गुरु' का निर्णय करना चाहिये । स्वामी सत्यभक्त ने लिखा हैं :
बिछा हुआ है, जगत में कु गुरु जनों का जाल । उसे तोड़ने के लिए ले विवेक-करवाल ।। ज्ञान नहीं; संयम नहीं
और न पर-उपकार । वे कु साधु गुरुवेष में
हैं पृथ्वी के भार ।। इसका आशय यह है कि जिसके जीवन में ज्ञान, संयम और परोपकार विद्यमान हो, वही गुरु है ।। ___मूर्तिकार अपनी कला के द्वारा पत्थर को प्रतिमा में परिवर्तित कर देता है । पत्थर को छैनी के तीव्र प्रहार सहने पड़ते हैं, तभी वह मूर्ति के रूप में पूज्य बनता है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य को दानव से मानव और मानव से महामानव बनाता है । गुरु की डाँट-फटकार और उसकी छड़ी के प्रहार सहकर ही शिष्य सुयोग्य विद्वान् बनता है :
गीर्भिर्गुरूणां पुरुषाक्षराभि - र्निपीडिता यान्ति नरा महत्त्वम् अलब्धशाणोत्कषणा नृपाणाम् न जातु मौलौ मणयो विशन्ति ।।
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