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लिए भोजन नहीं करता, कवल शरीर को टिकाये रखने के लिए ही आवश्यक खुराक ग्रहण करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि वह जीने के लिए रवाता है; खान के लिए नहीं जीता ।।
भरख बझाने के लिए भोजन करना अर्थदण्ड है । स्वाद की लालच में ट्रस-हंसकर रवाना अनर्थदण्ड है । यही बात प्रत्येक कार्य में समझें । अनर्थदण्ड ही पाप का कारण होता है ।
हम दूसरों को सताते है, तो दूसरे हमें सताते रहते हैं । इस प्रकार दुनियाँ में पापवृद्धि क अवसर आन रहते हैं । पुण्य का फल सुख है
और पाप का फल दःख । यह जानते हुए भी लोग पाप नहीं छोड़ते । हजारों वर्ष पहल महर्षि व्यास ने लिखा था :
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । पापस्य फलं नेच्छन्ति
पाप कुर्वन्ति यत्नतः ।। [मनुष्य पुण्य का फल (सख) तो चाहते हैं; परन्तु पुण्य (परोपकार) करना नहीं चाहते । इससे विपरीत पाप का फल (दुःख) नहीं चाहते (फिर भी) यत्नपर्बक पाप करते रहते हैं !)
महर्षि की बात आज भी सच्ची साबित हो रही है। मनुष्य क स्वभाव में परिवर्तन अब तक नहीं हो पाया है । लोह का टुकड़ा यहि कीचड़ से भरा हो तो पारस से छन पर भी वह साना नहीं बनता । उसी प्रकार आत्मा पर अज्ञान, विषय-कषाय आदि का कीचड़ लिपटा हो, तब तक गुरुदेव क सदपदंश का उस पर कोई असर नहीं होता । __ मनुष्य को यदि स्वरूप (गत्मा क ग्लभाय) का ज्ञान हो जाय तो वह मानव से महामानव बन जाय । स्वरूपता बनने लिए सदढ़ सकल्प होना चाहिय । ___ कबीर साहब क एक दोह का भाव यह है कि जब शिण जन्म लेता है, तब राना है और दूसर हंसते हैं (प्रसन्न होते हैं)। उस एसा कार्य करना चाहिये कि जब उसकी मत्य हो तब वह हंस और अन्य सब लोग राने लगें कि कितना अच्छा आदमी था ! हमार दुर्भाग्य से आज चल बसा।
परोपकारी को ही इरा तरह लोग याद करते हैं । आप भी यथाशक्ति परोपकारी बनीय और यदि दूसरे लोग आपका उपकार करते हैं तो आप उनक प्रति पर कतज्ञ रहिये ।
कुत्ता अगर पालक की यथाशनि संवा करता है । उस की धारखा
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