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व्यर्थ है । सारा संसार एक सुन्दर धर्मशाला है, जिसमें अमुक अवधि तक हमें रहना है । अवधि समाप्त होते ही पुण्य-पाप की गठरी लेकर हमें अनिवार्य रूपसे आगे बढ़ना होगा । धर्मशाला में स्थायी निवास किसी का नहीं होता :
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे कान्ता गृहद्वारि जनः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥ [धन जमीन में (पहले धन एकान्त स्थल में गाड़कर रखा जाता था), पशु बाड़े में, पत्नी घर के दरवाजे तक, परिवार तथा अन्य बन्धुगण श्मशान तक और अपना शरीर चिता तक साथ आता है अर्थात ये सब क्रमशः छूटते चले जाते हैं और अन्त में कर्मसहित जीव को अंकले ही यात्रा क लिए निकलना पड़ता है]
जीवन माँगकर लाये हए गहने की तरह झुटी शान बढ़ाने के अतिरिक्त किसी काम नहीं आता ! ___ परन्तु वैराग्य के ऐसे समस्त विचार श्मशान से घर लौटते ही गायब हो जाते हैं । संसार की क्षणिक वस्तुएं फिर से मन को आकर्षित करने लगती हैं ।
रास्ते से गुजरते हुए किसी फिल्म के पोस्टर पर नजर पड़ते ही उसे देखने की उत्सुकता उत्पन्न हो जाती है । फिल्म दखे बिना वह उत्सुकता शान्त नहीं हो सकती । जब तक वह शान्त नहीं हो जाती, तब तक चित्त की एकाग्रता (जो मानसिक शान्ति के लिए आवश्यक है) कसे रह सकती है ? प्रभु महावीर बहुत ही महत्त्वपूर्ण सन्देश देते हैं :--
जयं चरे जयं चिढे जयं आसे जयं सए । जयं भुंजतो भासतो
पावं कम्मं न बन्धइ ।। (सावधानी पूर्वक चलने, खड़े रहने, बेठने, सोने, खाने और बोलने वाले को पाप नहीं लगता !)
हमारी प्रत्येक क्रिया सावधानीपूर्वक होनी चाहिये- विवेकपूर्वक होनी चाहिये-विचारपूर्वक होनी चाहिये ! यही प्रभु क सन्देश का आशय है
जिसक सारे कार्य मर्यादित होते हैं, वही सजन है वह स्वाद क
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