________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नहीं देता । जो व्यक्ति अपने उपकारी को धोखा देता है, वह जिस थाली में खाता है, उसी थाली में छेद करने वाला नमकहराम है-कतघ्न है । जिसके जीवन में कतज्ञता के स्थान पर कतघ्नता का निवास होता है, वह व्यक्ति कुत्ते से भी गया- गुजरा होता है ।। ___ एक कृतज्ञ व्यक्ति दस परोपकारियों को पैदा करता है और एक कतघ्न व्यक्ति सौ परोपकारियों को पैदा होने से रोक देता है । __जो आत्मज्ञ होता है, वही कृतज्ञ बन सकता है । आत्मज्ञता के लिए आवश्यक है - देव की करुणा, गुरु के उपदेश और धर्म का पालन । देव-गुरु-धर्म की अनुकलता से जीवन में ऐसा सौम्य उज्वल प्रकाश उत्पन्न होता है, जो चारों और शान्ति स्थापित कर सक, सर्वत्र आनन्द बिखेर सके, प्रेम की वर्षा कर सके । ___ भागते हुए किसी व्यक्ति से यदि आप पूछ लें कि “गन्तव्य स्थल कौनसा है ?" और यदि वह मौन रह जाय अथवा कह दे कि “मुझे मालुम नहीं" तो आप उसे सहसा मूर्ख समझेंगे; परन्तु क्या वही मूर्खता हम में नहीं है ? हम जीत जरूर हैं, किन्तु हमें अपने जीवन का उद्देश्य ही नहीं मालुम । एक साधारण कीड़ा भी एक पत्ते से दूसरे पत्ते पर किसी प्रयोजन से ही जाता है; परन्तु मनुष्य जैसे विकसित प्राणी को जीवन का प्रयोजन मालुम न हो-यह कितने आश्चर्य की बात है ?
लक्ष्य निश्चित होने पर ही ठीक दिशा में प्रगति हो सकती है । श्रमण आत्मकल्याण के लिए श्रम करता है; किन्तु पुद्लानन्दी साधारण जीव संसार में पर्यटन करने के लिए परिग्रह और पाप की पोटली बाँधने में लगा रहता है।
तराजू का काँटा स्थिर होने पर ही वस्तु का ठीक भार बताता है । उसी प्रकार स्थिर मन को ही जीवन का लक्ष्य मालुम हो सकता है । उसके लिए चिन्तन-मनन की जरूरत होती है, दौड़-धूप की नहीं ।
त्याग, तप, संयम, नियम आदि के द्वारा आत्मा को सांसारिक बन्धनों से मुक्त करना ही जीवन का प्रयोजन है । जिस प्रकार लोकमान्य तिलक ने स्वराज्य को अपना जन्मसिद्ध अधिकार बताया था, वैसे ही संसार के समस्त साधु मोक्ष को प्राणियों का जन्मसिद्ध अधिकार बताते हैं । वे कहते हैं-जीव को शिव, नर को नारायण, मानव को महामानव और अहं (आत्मा) को अर्हम् (परमात्मा) बनाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है ।
४६
For Private And Personal Use Only