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नवे वयसि यः शान्तः
स शान्त इति मे मतिः । धातुषु क्षीयमाणेषु
शान्तिः कस्य न जायते ?
( नई अवस्था ( जवानी ) में जो शान्त (धार्मिक) रहता है, वही सच्चा शान्त है ऐसा मैं मानता हूँ; क्योंकि ( बुढापे में ) धातुओं के क्षीण हो जाने पर भला कौन शान्त नहीं हो जाता ? )
इन्द्रियों के और आत्मा के स्वभाव में भिन्नता है । मानव जीवन इन दोनों के बीच फँस गया है । इन्द्रियाँ विषयों की ओर आकर्षित होती हैं। . उनका मार्ग प्रय है । बच्चे तो बिस्कुट, टॉफी, चाकलेट और आइस्क्रीम की ओर आकर्षित होते हैं; परन्तु माता समझती है कि इन चीजों से बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा; इसलिए वह उन चीजों से बच्चों को बचाने की कोशिश करती है। माता की तरह गुरुदेव भी इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़नेवाले अज्ञानी मनुष्यों को समझाते हैं और उन्हें आत्मा के श्रेयमार्ग की ओर मोड़ते हैं, जिससे क्षणिक नहीं, स्थायी सुख सबको मिल सके।
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वे समझाते हैं - शरीर से नहीं, अपने आप से प्रेम करो । जो अपनी आत्मा से प्रेम नहीं करता, वह दूसरों से भी प्रेम नहीं कर सकता ।
जो आत्मा से प्रेम करता है, वह संयमी बन सकता है। उसके सम्पर्क में आनेवाले भी संयमी बन जाते हैं; जैसे एक दीपक से हजारो दीपक जल सकते हैं ।
मानव समाज में संगठन का आधार प्रेम है और विघटन का आधार द्वेष । जो फटे हृदयों को जोड़ने का काम करता है, उसका स्थान अपने आप महत्त्वपूर्ण हो जाता है- उच्च हो जाता है ।
किसी ने एक दर्जी से पूछा
में रखते हैं और केंची को पैरों में ! ऐसा क्यों करते हैं ?"
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आप सुई जैसी छोटी चीजको पगड़ी
दर्जी ने उत्तर दिया भाई ! दर्जी अपनी मर्जी से ऐसा नहीं करते; किन्तु अपने गुणों के ही कारण इन्हें ऊँचा-नीचा स्थान मिलता है । सुई छोटी जरुर है, परन्तु यह सदा जोड़ने का काम करती है; इसलिए इसे पगड़ी में रखा जाता है । इससे विपरीत कैंची काटने का अलग करने का - फूट डालने का काम करती है; इसलिए उसे पैरों के पास रखा जाता है !"
प्रेम से संगठन होता है और संगठन में शक्ति का निवास ।
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