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जीवन क्षणभंगुर सपने जैसा है । सपना घंट-दो घंटे का होता है और जीवन साठ-अस्सी अथवा अधिक से अधिक सौ-सवा सौ वर्ष का ! यही दोनों में अन्तर है । इस जीवनरूपी सपने का अधिक से अधिक सदुपयोग करने वाला ही बुद्धिमान् है । प्रभु महावीर ने कहा था :
समय गोयम ! मा पमायए ।।" (है गौतम ! तु क्षण भर भी प्रमाद मत कर)
ज्ञानी तो द्रष्टा हैं-दर्शक हैं । उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलना तो हम को ही पड़ेगा; अन्यथा हम भवसागर को पार नहीं कर सकेंगे :
अरिहंतो असमत्थो तारिउ जणाण भवसमुद्दम्मि । मग्गे देसणकुसलो
तरन्ति जे मग्गि लग्गन्ति । (लोगों को भवसमुद्र से पार ले जाने में अरिहन्त समर्थ नहीं हैं । वे केवल मार्ग दिखाने में कुशल हैं । जो उस मार्ग पर चलते हैं, वे ही पार होते हैं)
किसी विचारक ने कहा है- “यदि कोई अच्छा काम करना है तो आज ही अभी कर डालो और यदि कोई बुरा काम है तो कल तक ठहरो ।”
इसी प्रकार एक अन्य विचारक ने कहा है :- “जो काम कभी भी हो सकता है, वह कभी नहीं हो सकता । जो कभी होगा, वहीं होगा !"
जो लोग कहते हैं- धर्म तो कभी भी कर लेंगे । वह भाग कर कहाँ जाता है ? बुढापे में उसका पालन कर लेंगे ।' वे सब भ्रम के शिकार हैं । धर्म के लिए कोई समय निर्धारित नहीं होता । पूरा जीवन ही धर्ममय होना चाहिये; क्योंकि मौत का पता नहीं है । क्या पता वह कब आक्रमण कर दे !
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्मसमाचरेत् ॥" (मृत्यु ने केश पकड़ रक्खे हैं - ऐसा सोच कर धर्माचरण करना चाहिए)
बुढापे के भरोसे आप बैठे रहे और जवानी में ही चल बस तो क्या होगा ? उम्र लम्बी होने से बुढापा आ गया तो भी उसमें धर्म कितना होगा ? उसका मूल्य क्या होगा ? इस पर विचार करते हुए नातिकार कहते हैं :४०
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