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जीवन विकास पूर्वाचार्यों ने कहा है :--
“मा सुयह जग्गिअव्वं, पलाइयव्वम्मि कीस वीसमह । तिण्णि जणा अणुलग्गा
रोगो य जरा य मञ्चू य ।।" [मत सोओ, जागते रहो । जहाँ तुम्हे भागना चाहिये, वहाँ तुम विश्राम कैसे कर रहे हो ? रोग, जरा (बुढापा) और मृत्यु-ये तीन लोग तुम्हारा पीछा कर रहे हैं ]
यदि कोई एक दुष्ट भी हमारा पीछा कर रहा हो तो उससे बचने के लिए हम भागते हैं, फिर जहाँ तीन-तीन दुष्ट हमारे पीछे पड़े हों तो हम विश्राम करने की भूल कैसे कर सकते हैं ?
परन्तु हो यही रहा है । इस भूल का अहसास हमें गुरुदेव कराते हैं । वे सावधान करते हैं और पुरुषार्थ करने की सलाह देते हैं ।
जीवन प्राप्त करना सरल है जो प्राणी जन्म लेता है, उसे जीवन तो मिल ही जाता है; परन्तु उस जीवन को शुद्ध बनाये रखना-वैराग्य और संयम क प्रयोग से उसे विकसित करने का प्रयास करना आसान कार्य नहीं है । पानी मे नाव रहे तो कोई बात नहीं; परन्तु नाव में पानी नहीं रहना चाहिये; अन्यथा वह डूब जायेगी । शासाकार कहते हैं :
जहा पडम जले जाय, नोवलिप्पइ वारिणा ।। जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होता है, फिर भी जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार संसार में उत्पन्न होकर भी ज्ञानी संसार से लिप्त नहीं होता-संसार के भौतिक कामभोग के क्षणिक सुखों में आसक्त नहीं होता । वह समझता है कि जीव प्रवासी है, वासी नहीं । संसार में कितनी भी सम्पत्ति संचित क्यों न कर ली जाय ? वह सब एक दिन छूट जायेगी । मृत्यु आने पर दिनरात निकट रहने वाली पत्नी भी मुर्दे शरीर के पास बैठना पसंद नहीं करती-शरीर भी जीव के साथ नहीं जाता; फिर भला यह सम्पत्ति कसे साथ रह सकती है ?
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