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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयकरः ? ( विद्या से सुशोभित दुर्जन का भी त्याग कर देना चाहिये । क्या मणि से अलंकृत साँप भयंकर नहीं होता ? ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साँप तो जिसे डसता है, वही मरता है; परन्तु दुर्जन डसता किसी और को है तथा मरता कोई और है । इसका तात्पर्य यह है कि दुर्जन झूठी शिकायत ( चुगली) करके किसी को भी पिटवा देता है । दुर्जन के मुँह से सदा कटुक कठोर शुद्ध ही प्रवाहित होते हैं । सज्जन ऐसे शब्दों से अपने मुंह को कलुषित नहीं करता । किसी पण्डित ने एक बार कहा था :- " आप मुझे सौ गालियाँ देकर देख लें, गुस्सा नहीं आयेगा । " यह सुनकर महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उत्तर दिया :"पण्डितजी ! आपक गुस्से की परख होने से पहले मेरी जीभ तो गन्दी हो ही जायेगी मैं एसी भूल क्यों करूँ ?” हमें भी अपनी जीभ को गालियों की गन्दगी से बचाना है । हो सकता है, हम किसी की प्रशंसा न कर सके; परन्तु निन्दा चुगली- गाली से तो बचे रह सकते हैं ! इतना ही काफी है । रहीम साहब ने कहा था : 'रहिमन' जिह्वा बावरी कहिगै सरग - पतार | आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपार || ऐसी ही दुर्दशा होती है- यदि हम वाणी का संयम न रक्खे। प्रभु महावीर "देवानुप्रिय" या " महानुभाव" कहकर ही सब को सम्बोधित करते थे । मानवता के लिए वाणी का संयम बहुत जरूरी है। जैन शास्त्रोंमें मानवभव को बहु ऊंचा स्थान दिया गया है । सबसे ऊंचा स्थान मोक्ष (सिद्धाशिला) हे । वहाँ पहुँचने का अधिकार केवल मनुष्य को प्राप्त है, अन्य किसी प्राणी को नहीं । अनुत्तर देवलोक के देवों को भी मोक्ष पाने के लिए मनुष्यशरीर धारण करना पड़ता है । मनुष्य ही सर्वज्ञ हो सकता है- चरमशरीरी हो सकता है; और कोई जीव नहीं । एक दिन सिकन्दर ने अपने एक सज्जन सेनापति को उसके ऊंचे पद से हटा कर देखा कि वह प्रसन्न रहता है । कारण पूछने पर उसने For Private And Personal Use Only २३
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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